Sunday 26 May 2013

उलाहना



प्रीत नीतपुर

 बकरियों वाले बाज की बेटी ने कुएं में छलाँग लगा दी…।
यह क्या हादसा हो गया?अनुभवी बुजुर्गों के माथे ठनके।
पटोले-सी थी, गाँव ही सूना कर गई।  नौजवानों के पाँवों तले तो जैसे आग लग गई।
छलाँग लगाई क्यों?मुखबरों, चुगलखोरों और बुरी नीयत वाले लोगों ने सुराग ढूँढ़ने शुरू कर दिए।
हाय राम! ये काम! मरजानी ने यह क्या किया?
एक-दूसरी से ‘अंदर की बात’ सूँघने की कोशिश में औरतें मुँह जोड़-जोड़ कर बातें करती। जंगल की आग की तरह, पल भर में ही बात सारे गाँव में फैल गई। सच में एक बार तो ‘थू-थू’ हो गई।

लड़की तो शरीफ थी…।
अरी शरीफ होती तो यूँ करती…!
बूढ़ी अत्तरी बोली, तुम्हें अंदरली बात का नहीं पता…
अंदरली बात जानने के लिए सभी ने कान खड़े कर लिए। फिर बूढ़ी अत्तरी ने बड़े ही भेद भरे अंदाज़ में बड़े ही धीमे-से जो कुछ कहा, उसे सुनकर सब के मुँह हैरानी से खुले के खुले रह गए।
हैं!!
जैसे बम फट गया होता है।
अरी! उसकी उम्र ही अभी क्या थी…और उलाहना कितना बड़ा ले लिया जग से।
और फिर कितनी ही देर तक वे खुसर-पुसर करती रहीं।
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Tuesday 21 May 2013

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निरंजन बोहा

सुदामा सिंह ने तो ऐसा सपने में भी नहीं सोचा था कि उसके बचपन के साथी मंत्री कृष्ण देव सिंह के दफ्तर में उसका इतना अच्छा स्वागत होगा। यद्यपि वह अपने सभी मित्रों को यह बात बहुत गर्व से बताता रहा है कि राज्य के शिक्षा मंत्री पाँचवी कक्षा तक उसके साथ पढ़ते रहे  हैं। लेकिन उसके मन में यह भय अवश्य था कि पता नहीं इतनी ऊँची पदवी पर बैठा कृष्ण अब अपने गरीब साथी को पहचानेगा भी या नहीं।
उसकी पत्नी कई दिनों से उस पर ज़ोर दे रही थी कि वह अपने बेरोजगार बेटे की नौकरी की सिफारिश के लिए मंत्री जी के पास जाए। बहुत दिनों की कशमकश के बाद वह झिझकते हुए मंत्री जी के दफ्तर के आगे पहुँच गया। उसकी हैरानी का कोई अंत नहीं रहा, जब उसका नाम सुनकर मंत्री जी स्वयं उठ कर उसके स्वागत के लिए आए। उन्होंने एक पल के लिए उसके घिसे-पुराने वस्त्रों की ओर देखा और फिर उसे जफ्फी में ले लिया। खुशी से उसकी आँखों में आँसू आ गए। उनके मिलन को यादगारी बनाने के लिए मंत्री जी ने लोक-संपर्क विभाग से फोटोग्राफर मंगवा कई तस्वीरें भी खिंचवा लीं।
सुदामा सिंह के चले जाने के बाद, मंत्री जी उसके बेटे की नौकरी के लिए दिए आवेदन को देख कर मुस्कराए। फिर उसे फाड़ कर रद्दी की टोकरी में फेंक दिया।
अगले दिन राज्य के सभी समाचार-पत्रों के मुख्य-पृष्ठ पर मंत्री जी की फोटो छपी थी, जिसमें वे सुदामा को जफ्फी में लिए हुए थे। फोटो के नीचे लिखा था कि इतनी ऊँची पदवी पर पहुँच कर भी वे खाली बोतलें और रद्दी खरीदने वाले अपने गरीब साथी को नहीं भूले।
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Wednesday 15 May 2013

किसान और उसकी बीवी


बलवीर परवाना


चारे की गाँठ थी और हाथों में बैलों को हाँकने वाला डंडा। चारे की गाँठ टोके के आगे फेंक,  उसने बैलों के गले से पंजाली उतार, उन्हें नाँद पर बांधा।
      ‘‘आज काफी देर कर दी।’’ रसोई में बैठी उसकी घरवाली ने पूछा।
      ‘‘वह कीकर वाला खेत जोत रहा था। सोचा, अब जोतकर चलता हूं सारा....क्या छोड़कर जाना है।’’ उसके चेहरे की तरह उसकी आवाज से भी थकावट झलक रही थी।
      ‘‘यह पानी रखा है, गर्म...हाथ...पांव धो लेने थे।’’
      ‘‘पशुओं को चारा डाल दूं पहले, जिन्हें सारा दिन जोता है।’’ उसको एहसास नहीं था कि पशुओं के साथ वह भी सारा दिन चलता ही रहा है।
      उसकी युवा बीवी टोका-मशीन में मुठ्ठे लगाने लगी और वह टोका चलाने लगा। चारे की गाँठ कुतरकर, उसमें तूड़ी मिला, बैलों की नाँद में डाली। बैल चारा खाने लगे और वह पानी बर्तन में डाल हाथ-पांव धोने लगा। उसके दोनों बच्चे कभी के सो चुके थे।
      गहरी रात गए, वह रोटी खाकर फारिग हुआ। बैलों को फिर से चारा डाला और पंजाली के रस्से ठीक कर, डंडा ठीक जगह पर संभाला।  फिर चारपाई पर लेटते हुए उसने अपनी घरवाली से कहा, ‘‘सुबह जरा जल्दी जगा देना, मुर्गे की बांग के साथ....वह रोही वाला खेत खत्म करना है।’’
      सुरमे-भरी पलकों से उसकी बीवी ने उसकी तरफ देखा, पर वह करवट लेकर सो चुका था। और सांझ हो गई थी। सूरज दूर पश्चिम की तरफ डूब चुका था, पर अभी अंधेरा नहीं हुआ था। चारों तरफ सलेटी रंग फैला हुआ था। दिन भर के काम से थका-हारा एक किसान अपने घर लौटा। उसके सिर पर खिले तारों की तरफ ताकती वह रात के अँधेरे-सी एक आह भरकर रह गई।
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Sunday 5 May 2013

दोमुँहे



अश्वनी खुडाल

डॉक्टर वर्मा एक छोटे से कसबे में स्थापित होने के बाद वहाँ अपना बड़ा अस्पताल बना रहा था। एक दिन वह निर्माण एवं अस्पताल संबंधी कुछ आवश्यक सामान के लिए बड़े शहर गया। वापसी पर अपने डॉक्टर मित्र कृष्ण मनचंदा से मिलने चला गया। उसे देखते ही मनचंदा बोला, आ भई वर्मा! यार तू कहाँ छोटे से कसबे में घिसे जा रहा है। शहर में क्यों नहीं आ जाता। अब तो सुना है तू वहाँ अस्पताल बना रहा है।
उसकी बात सुन वर्मा बोला, आपको नहीं पता मनचंदा साहब, पहले मुझे भी नहीं पता था। वहाँ रहा तो पता चला। यहाँ शहर से वहाँ प्रैक्टिस करनी बहुत आसान है। और वहाँ भी अब पैसे की कोई कमी नहीं। ज़माना बदल रहा है, अपने पेशे में कितनी तरह का डर रहता है। वहाँ किसी तरह का भय नहीं। लोग अधिक पढ़े लिखे नहीं। अपना व्यापार लोक-सेवा के नाम पर चलाओ। यहाँ तो आपने लिंग-टैस्ट करना है तो, डर ही डर। पर वहाँ खतरा बहुत कम है…और अब तो कुंवारी लड़कियाँ भी…! बिना डर के अच्छे पैसे। अपने बच्चों का भविष्य भी तो बनाना है।कहकर वर्मा हँसा।
डॉक्टर मनचंदा उसकी ओर हैरानी से देख रहा था।
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