Sunday 20 September 2015

ग्लेशियर




 अरतिंदर संधू

राजिंदर सिंह नौकरीपेशा आदमी था। बेटा उसका पढ़ाई में साधारण ही निकला। उसे काम में डालने हेतु वह एक दुकान खरीदने के प्रयास में था। अंततः दलाल ने उसे एक दुकान पसंद करवा ही दी। आज उसने राजिंदर सिंह को दुकान-मालिक से मिल कर सौदा पक्का करने के लिए बुलाया था। दलाल के टिकाने पर वह कुछ जल्दी ही पहुँच गया। दुकान का मालिक अभी पहुँचा नहीँ था। दलाल राजिंदर सिंह के पास दुकान मालिक की बड़ाई के पुल बाँधने लगा—‘वे तो बहुत ही ऊँचे आचरण वाले, प्रभु के सच्चे भक्त हैं। उन के तो दर्शन करके ही मन को शांति मिल जाती है
तभी वे महापुरुष दुकान में दाखिल हुए। दूध-से सफ़ेद वस्त्र, सफ़ेद दाढ़ी, साफ रंग व गले में लटकी कृपाण। दलाल ने इशारे से समझाया कि वह इनकी ही बात कर रहा था। राजिंदर खड़ा हो बहुत ही श्रद्धा के साथ व झुककर उनसे मिला। वह उनसे इतना प्रभावित हुआ कि अपने बेटे को भी उन से मिलाने के लिए बुला लिया।
फिर शुरू हुआ सौदे की बातचीत का सिलसिला। बात दस लाख पर जा कर तय हुई। दस लाख की रकम उसकी औकात से बाहर थी। इतनी बड़ी रकम का प्रबंध कैसे करेगा, इस बारे में वह सोच ही रहा था कि उसके कानों में दुकान मालिक की आवाज पड़ी, पक्के में तीन लाख से ज्यादा नहीं होंगे। बाकी कच्चे में।
वह नौकरीपेशा इस बात को बिल्कुल नहीं समझा तो उसने दलाल की ओर देखा, क्या मतलब, मैं कुछ समझा नहीं जी?” दुकान मालिक ने भी दलाल की तरफ ऐसे देखा मानो कह रहा हो, समझाओ इस बुद्धू को।
दलाल ने उसे समझाना शुरू किया, भोले पातशाहो! तीन लाख का तो चाहे ड्राफ्ट दे देना, चाहे चैक। पर बाकी की रकम कैश में देनी होगी। दुकान की रजिस्टरी तीन लाख की ही होगी।
राजिंदर सिंह हैरान रह गया, यानि सात लाख ब्लैक?”
दलाल तुरंत बोला, ब्लैक नहीं सर, कच्चे! कच्चे कहते हैं। जमीन के सौदे इसी तरह होते हैं। सारे पैसे पक्के में लेकर तो बहुत टैक्स पड़ता है।
राजिंदर सिंह का दिमाग घूम गया। उसे स्कूल में पढ़ा याद हो आया—‘ग्लेशियर, पहाड़ जैसे बर्फ के बड़े-बड़े खंड होते हैं, जो पानी पर तैरते रहते हैं। ये जितने पानी के बाहर दिखाई देते हैं, उससे कहीँ अधिक पानी के भीतर होते हैं। वे बड़े-बड़े जहाजों से टकरा कर उन्हें डुबो देने का सामर्थ्य रखते हैं।
                   -0-

Sunday 30 August 2015

सरमाया



कुलविंदर कौशल

वह कई वर्षों बाद गाँव आया था। शाम को घूमता-घुमाता वह चौपाल की तरफचला गया। गाँव की चौपाल के पास कभी उसने बहुत यत्न से गाँव के नौजवान शहीद का बुत लगवाया था। बुत के चारों ओर चारदीवारी कर फूल-बूटे लगवा दिए थे। शहीद के बुत को देख, उसे बहुत आघात पहुँचा। पक्षियों ने बीठ कर कर बुत का बुरा हाल कर रखा था। चारदीवारी के भीतर उगे घास-फूस ने अपना कद बहुत बढ़ा लिया था। बाहर कुछ बुजुर्ग लोग बैठे ताश खेल रहे थे।
राम-राम जी!” वह बुजुर्गों के पास पहुँच कर बोला।
राम-राम बेटा, कब आया?”
आज सुबह ही आया था। बाबा जी, आपने गाँव के शहीद की यादगार का बहुत बुरा हाल कर रखा है
तुझे पता ही है बेटा, सरकार कहाँ देशभक्त सूरबीरों की कदर करती हैं। सरकार कोई ग्रांट-ग्रूंट दे तो इसे बैठने लायक बनाएँ। एक बुजुर्ग ने उसकी बात बीच में ही काटते हुए कहा।
ताऊ जी, क्या हम इतने गए-गुज़रे हैं कि अपने शहीदों की यादगार की देखरेख के लिए भी सरकार के मुँह की ओर देखें। हम लोग हर वर्ष यज्ञ करवाने पर लाखों खर्च देते हैं, पर अपने सरमाये की देखभाल के लिए कुछ समय भी नहीं दे सकते। शर्म आती है मुझे तो कहता हुआ वह आगे बढ़ गया।
सारी रात उसे नींद नहीं आई। दिन निकलते ही वह कस्सी उठा चौपाल की ओर चल दिया। जब वह वहाँ पहुँचा तो उसने देखा उससे पहले ही कई बुजुर्ग सफ़ाई के काम में जुटे हुए थे।
                     -0-

Monday 24 August 2015

बदलता मौसम



अवतार सिंह दीपक (प्रिं.)

आप! हैडमास्टर साहब! धन्य हो गए हम, भाग कुल गए! आओ, आ जाओओए छोटू, कुरसी साफ कर के ला, यहाँ मेरे पास। आप बताइए क्या लोगे? ठंडा या गर्म?” प्रकाशक कश्मीरी लाल हैडमास्टर साहिब का स्वागत करते हुए कह रहा था।
मेहरबानी! किसी चीज की जरूरत नहीं। हैडमास्टर साहिब ने जवाब दिया, इधर से गुज़र रहा था, सोचा आपके दर्शन करता जाऊँ। और सुनाइए, काम-धंधा कैसा चल रहा है?”
आपकी कृपा है जी। इस बार तो सब कुछ दाँव पर लगा दिया है। पुस्तकें छापना तो एक जूआ है, हैडमास्टर साहब। पर इस बार तो पासा सीधा पड़ता दिख रहा है। अच्छे लेखक भी तो किस्मत से ही मिलते हैं। इस बार विद्यार्थियों के लिए विज्ञान की चार पुस्तकें प्रकाशित की हैं। ये चारों पुस्तकें दुग्गल जालंधरी से लिखवाई हैं। लेखक ने बहुत मेहनत की है। छापने में हमने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। कश्मीरी लाल ने रौ में आते हुए कहा, आफसैट पर छपे चार-रंगे चित्र देखकर पाठक की भूख उतरती है। सिनेमा संबंधी इस पुस्तक बोलती तस्वीरें ने तो राष्ट्रीय पुरस्कार जीता है। सरकार ने इसकी पाँच हजार प्रतियां खरीदी हैं। बिजली की बातें पुस्तक को तो राज्य सरकार ने आठवीं कक्षा में सप्लीमेंट रीडर लगा दिया है। कोई भी पुस्तक खोल के देखिए, विज्ञान के नीरस मैटर को भी जीवन की उदाहरणों से मनोरंजक बना दिया है। हर बात बच्चे के दिमाग में झट से बैठ जाती है। कोई पुस्तक खोल कर तो देखिए।
सच में ही पुस्तकें तो कमाल की हैं। ये पुस्तकें तो लाइब्रेरी का श्रृंगार बनेंगी। कीमत भी वाजिब है। हैडमास्टर साहिब ने तारीफ की।
हैडमास्टर साहब, ये बताओ पैप्सी लोगे या चाय? गर्मी बहुत है, पैप्सी ठीक रहेगी। और उसने नौकर को आवाज लगाई, ओए छोटू, भाग कर अमीचंद की दुकान से ठंडी पैप्सी लेकर आ।
                          -0-
पैप्सी आ गई तो कश्मीरी लाल बोला, हाँ तो हैडमास्टर साहब आप आर्डर कब भेज रहे हो?”
कैसा आर्डर?”
अपने स्कूल की लाइब्रेरी के लिए पुस्तकों का।
पर कश्मीरी लाल जी, मैं तो पिछले सप्ताह रिटायर हो गया हूँ।
रिटायर शब्द सुनते ही हाथ में पकड़ी ठंडी बोतल उसे गर्म लगने लगी।
                     -0-