Monday 27 October 2014

पत्थर लोग



हमदरदवीर नौशहरवी

काली अँधेरी सर्द रात। नहर का किनारा। एक जीप रुकी।
हाँ, यह जगह ठीक है। टाँगों से खीच कर फेंक नीचे, फिर चलें। सर्दी के मारे जान निकली जा रही है।
“आज की रात जिंदा रहती तो एक रात और गर्म कर जाती।”
“कहती थी, मुझे क्या पता कि प्रधान साहब की अचकन की जेब से पचास रुपये किसने चोरी किए हैं, कोठी में रोज शराब की महफिल जुड़ती है। साली निकली बहुत पक्की, मानी नहीं।”
“हमने भी कौनसा इसे पीटा था। चारपाई पर लिटा कर प्यार ही तो किया था। ही…ही…ही…।”
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प्रातःकाल। गहरा अँधेरा। जागीरदार का ट्रैक्टर रुका। जागीरदार का लड़का नीचे उतरा। पासे बैठे दोनों बिहारी मजदूर भी उतर आए।
“कौन है? बेहोश पड़ी…नंगी…!”
“ये तो दुलारी लगती है। बड़े सरदार के यहाँ काम करती है। बेचारी बेवा…!”
“चलो चलें। हमें क्या? कोई भी हो।”
“दुलारी ही है।” बिहारी मजदूर ने उसकी सलवार ऊपर कर उसका नंगेज ढ़क दिया।
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कोहरे भरी सुबह। चारों तरफ धुंध। कार रुकी। वे बाहर आए।
इतनी सर्दी में बाहर क्यों पड़ी है?”
दाँत देख, जैसे मोती हों।
यह तो मरी हुई लगती है। सर्दी से मर गई शायद।
रात को हमारे पास आ जाती। खुद गर्म रहती और हमें भी गर्म रखती।
सहकती है शायद।
चल यार चलें। यूँ ही पुलिस खींचती फिरेगी।
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Monday 20 October 2014

मुक्ति



जगदीश राय कुलरियाँ

बेटा, मेरी यही विनति है कि मेरे मरने के बाद मेरे फूल गंगा जी में डाल कर आना।मृत्युशय्या पर पड़े बुज़ुर्ग बिशन ने अपने इकलौते पुत्र विसाखा सिंह कि मिन्नत-सी करते हुए कहा। गरीबी के कारण इलाज करवाना ही कठिन था। ऊपर से मरने के खर्चे। फूल डालने जैसी रस्मों पर होने वाले संभावित खर्चे के बारे में सोच कर विसाखा सिंह भीतर तक काँप उठता था।
लो बच्चा! पाँच रुपये हाथ में लेकर सूर्य देवता का ध्यान करो।फुटबाल जैसी तोंद वाले पंडे की बात ने उसकी तंद्रा को भंग किया।
उसे गंगा में खड़े काफी समय हो गया था। पंडा कुछ न कुछ कह उससे निरंतर पाँच-पाँच, दस-दस रुपये बटोर रहा था।
ऐसा करो बेटा, दस रुपये अपने दहिने हाथ में रखकर अपने पित्तरों का ध्यान करो…इससे मरने वाले की आत्मा को शांति मिलेगी।
अब उससे रहा नहीं गया, वह बोला, पंडित जी, यह क्या ठग्गी-ठोरी चला रखी है। एक तो हमारा आदमी दुनिया से चला गया, ऊपर से तुम मरे का माँस खाने से नहीं हट रहे। ये कैसे संस्कार हैं?
अरे मूर्ख, तुझे पता नहीं कि ब्राह्मणों से कैसे बात की जाती है! जा मैं नहीं करवाता पूजा। डालो, कैसे डालोगे गंगा में फूल?…अब तुम्हारे पिता की गति नहीं होगी। उसकी आत्मा भटकती फिरेगी…।पंडे ने क्रोधित होते हुए कहा।
बापू ने जब यहाँ स्वर्ग नहीं देखा तो ये तुम्हारे मंत्र उसे कौनसे स्वर्ग में पहुँचा देंगे?…जरूरत नहीं मुझे तुम्हारे इन मंत्रों की…अगर तुम फूल नहीं डलवाते तो…इतना कह उसने अपने हाथों में उठा रखे फूलों को थोड़ा नीचा कर गंगा में बहाते हुए आगे कहा, ले ये डाल दिए फूल!
उसका यह ढंग देखकर पंडे का मुँह खुला का खुला रह गया।
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Monday 13 October 2014

कंजक



रणजीत आज़ाद काँझला

बहन राम कौर! अपनी छोटी बेटी ममो को कल सुबह जल्दी ही भेज देना, कंजकों को भोजन कराना है। कल अष्टमी जो है।मुहल्ले में चौथे घर से आई नौरती आवाज दे और कंजकों को निमंत्रण देने आगे को चल पड़ी।
कोई न बहन! भेज देंगे, सुबह जल्दी ही। फिर इसने स्कूल भी जाना है।मेरी पत्नी रसोईघर में से हुंकारी भरती हुई बोली।
कंजकों को भोजन खिलाने की बात मेरे कानों तक भी पहुँच गई थी।
नौरती ने कंजकों को भोजन किस लिए कराना है?  जानने के लिए मैंने पत्नी से प्रश्न किया।
वो जी! इसके बड़े बेटे को ब्याहे तीन साल हो गए, पर उसके घर…
पर उसके घर क्या? पिछले दिनों इनकी बड़ी बहू ने प्राइवेट अस्पताल में अबारशन तो करवाया है।
हाँ। वह तब करवाया जब टैस्ट में लड़की की रिपोर्ट आई थी। इसी लिए एक बार फिर आपरेशन करवाना पड़ा।स्त्री-जाति की दुश्मन बनी औरत-जीभ बोल रही थी, कंजकों को इसीलिए तो भोजन करवाते हैं कि भगवान हमारे घर अच्छी चीज दे।
मैं गुस्से में गरजा, इन पापियों के घर अपनी बेटी को भोजन के लिए मैंने नहीं भेजना । मासूम कंजक का तो पेट में कत्ल करवाते हैं, फिर इन्हीं कंजकों को भोजन करवा कर ‘लाल’ चाहते हैं…!
मेरी खरी-खरी बातें सुन पत्नी मुँह लटकाए रसोईघर में चली गई।
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Monday 6 October 2014

बाप की आत्मा


डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति



चल बापू! तू हमारे साथ शहर चल। पीछे हमें बहुत परेशानी रहती है। दोनों ड्यूटी वाले, बच्चों की पढ़ाई और कई तरह के काम। मुश्किल से ही समय मिल पाता है, गाँव आने का। यूँ ही परेशानी रहती है।सुखजीत ने कहा।
मुझे कोई तकलीफ नहीं हैं यहाँ, बिल्कुल कोई दिक्कत नहीं। यूँ ही मन पर बोझ डालने की ज़रूरत नहीं। सुबह-शाम दो घंटे गुरुद्वारे लगा आता हूँ। फिर चौपाल में कोई न कोई जुंडली जुड़ी रहती है। यूँ ही गाँव में सुख-दुख चलता रहता है, तू खुश रह। और फिर थोड़ा रुक कर वह बोला, मैने कभी तुझसे शिकवा किया हो कि तू आता नहीं, तो कह।
बापू, तेरे शिकवे की बात नहीं, खुद को तो महसूस होता है न। पिछले महीने तू बीमार हो गया। न कोई संदेश, न पता। परेशानी तो होती है न।
अब उमर ही ऐसी है बेटे, थोड़ा बहुत शरीर ढ़ीला रहता ही है। गाँव का डाक्टर बहुत अच्छा है। मैं तो हर रोज, एक बार उसके पास जाता ही हूँ, नेम की तरह। बहुत ही भला मानस है।
बापू, अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ। बापू, चाहे किराये का मकान ही है, मिलजुल कर लेंगे गुज़ारा। तू मेरी परेशानी समझ।
बेटा, तू ही न जिद्द कर।
जिद्द तो बापू तू कर रहा है।
इस बार बेटे की जिद्द मानी गई और बापू शहर आ गया।
सुबह उठ, बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजा। फिर दोनों अपने तैयारी में जुट गए और जाते हुए कहा, बापू, अपना ख्याल रखना।
बापू ने पूछा, बेटा, कितने बजे वापस आओगे?
छः तो बज ही जाएंगे।
बच्चे तो स्कूल से जल्दी आ जाते होंगे?बापू ने फिर पूछा।
नहीं बापू, वे भी हमारे साथ ही आएंगे, डे-बोर्डिंग में हैं।
और फिर गेट के पास पहुँच कर सुखजीत ने बापू से कहा, गली में या कहीं बाहर मत जाना। यूँ ही कहीं खो जाओ।
और शाम को जब वे लौटे तो बापू सचमुच ही खो गया था।
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