Saturday 26 July 2014

गरीबों का गहना



 प्रीत नीतपुर

साइकिल बाहर खड़ा कर, सिर झुका मैं झोंपड़ीनुमा उस छोटी-सी दुकान में दाखिल हुआ। अंदर ज्ञानी तो था ही नहीं। अड्डे पर बैठा बारह-तेरह वर्ष का एक लड़का, जनाना सैंडिल की स्ट्रैप को टाँके लगा रहा था।
अंदर पत्थर की बनी सीट पर बैठते हुए मैंने पूछा, बेटे तेरे डैडी…?
लड़के ने मेरी ओर सरसरी व पाँव में पहने जूते की ओर हसरत भरी नज़र डालते हुए कहा, वह तो जी, ब्याह में गया है, साथ मम्मी भी। मेरे मामा की लड़की का ब्याह है, उधर बहुत दूर बठिंडे की तरफ, मेरी ननिहाल।
ननिहाल में ब्याह था…तू क्यों नहीं गया?
डैडी हम में से किसी को भी लेकर नहीं गया।लड़का किसी अनाड़ी व्यक्ति के बनाए गोले की तरह उधड़ता चला गया, वह कहता, अगर सभी जने गए तो किराया बहुत लगेगा। और मम्मी कह रही थी कि यहाँ हमारे गुरुद्वारे में यज्ञ होना है। जलेबियाँ बनेंगी, जितनी मर्जी खाओ, पेट भर। वहाँ ब्याह में तो पता नहीं…।
फिर तू जलेबियाँ खाने क्यों नहीं गया?
मेरे सभी भाई-बहन तो गए हुए हैं, सुबह से ही। मुझे दादी कहती, तू दुकान खोल ले। बस गुड़-चाय के लिए पाँच रुपये बन जाएँ, फिर तू भी गुरुद्वारे चले जाना…।
कितने पैसे बन गए अब तक?
अभी तो कोई तीन रुपये ही हुए हैं।
बेटे! लड़के की पीठ थपथपाते हुए मैंने कहा, गरीबी आदमी के लिए सबक है, एक परीक्षा है। डगमगाना नहीं…मेहनत ही गरीबों का असली गहना है। ले पकड़, मेरे जूते पालिश कर।
पालिश करते समय लड़के का चेहरा लाल गुलाब की तरह खिला हुआ था।
                        -0-
 


Sunday 20 July 2014

निष्ठा



जसबीर बेदर्द लंगेरी

दो-ढ़ाई मील तो है शहर, जितनी देर बस का इंतजार करूँगी, उतने में तो पैदल चल कर ही पहुँच जाऊँगी।’यह सोच कर वह पैदल ही शहर की ओर चल दी।
अभी वह गाँव के बाहर ही निकली थी कि उसके पास गुरजीत पटवारी ने स्कूटर को ब्रेक लगाते हुए कहा, बैठ जाओ भाभी जी, मैं भी शहर ही जा रहा हूँ।
सिमरन को स्कूटर के पीछे बैठी देख, चुगलखोर तारो तुरंत उनके घर पहुँच गई। सरसों का साग चुन रही सिमरन की सास की चारपाई के पास पीढ़ी पर बैठ बाथू चुनते हुए बोली, सास-बहू अकेली लगी रहती हो, मुझे बुला लिया करो। मैं कौनसा इंकार करती हूँ। सच, सिमरन कहीं गई है, मुझे लग रहा था जैसे वह पटवारी के स्कूटर के पीछे बैठी हो।
उस बेचारी ने कहां जाना है! नम्रता की फीस जमा करवानी थी, आज आखरी तारीख है। साथ में कहती थी, थोड़ा-सा सामान ले आऊँगी घर का…।चुने हुए साग को एक तरफ रख, मुँह पर आए पसीने को दुपट्टे से पोंछते हुए सास ने कहा।
बेबे, एक बात कहूँ, गुस्सा न करना। सिमरन शहर चाहे रोज जाए, कोई डर नहीं। पर जीत का तो तुम्हें पता ही है, बंदा ठीक नहीं। औरतों को तो बातों से ही फुसला लेता है, देखना कहीं…।
चुप कर री, सदा लगाने-बुझाने में ही लगी रहती है। कभी तो अच्छा सोच लिया कर। मेरी सिमरन पर मुझे गर्व है। मैंने उसकी निष्ठा और विश्वास को परख लिया है, अब कुछ कर भी ले तो मुझे कोई गुस्सा नहीं। वह तो अब पास है। फेल तो मेरा बेटा है जो शादी के तीन माह बाद ही गोरों की धरती पर किसी और का हो गया था।
सिमरन की सास ने तारो को बीच में ही झाड़ते हुए कहा और बुडबुड़ाती हुई रसोई की तरफ चली गई।
                          -0-

Monday 14 July 2014

नसीहत



रणजीत आज़ाद काँझला

टैस्ट करवाने पर पता लगा कि अर्चना के पेट में आया तीसरा बच्चा भी लड़की ही है। सास ने बहू पर हुकुम चलाया, जा इसे रफा-दफा करवा दे! हमारी किस्मत में लड़का कहाँ…!
“…माँ जी! इस बार…इस बार नहीं…नहीं!ममता भरी आवाज थरथराई।
कौन पालेगा इन्हें? कोई घाटा नहीं पड़ने वाला। चल तैयार हो जा, नर्सिंग-होम जाने के लिए।सास ने ताकीद की।
माँ जी! मैं ऐसा नहीं…! आजकल लड़के –लड़की में कोई फर्क नहीं रहा। बल्कि लड़कियाँ तो लड़कों से भी आगे निकल रही हैं। वेद-ग्रंथ भी यही कहते कि संतान तो आदमी की किस्मत से होती है।अर्चना दबी आवाज़ में कह रही थी।
अरी तू मुझे अक्ल दे रही है! उठ, चल मेरे साथ। आज इसका खात्मा करके आऊँ।सास आँखें दिखाते हुए बोली, नहीं जाएगी तो तुझे आग लगा कर फूँक दूँगी।
सास ने अर्चना को आग लगा कर फूँकने की अपनी मंद भावना अभी प्रकट की ही थी कि अर्चना ने चंडी का रूप धारण कर लिया। वह अपनी सास पर झपट पड़ी और उसकी अच्छे-से मुरम्मत कर दी।
आसपास के घरों की औरतें हाय-बू’ की आवाजें सुन दौड़ी आईं। उन्होंने देखा, अर्चना ने अपनी सास को घुटनों तले दबा रखा था। एकत्र हुई औरतें सारी बात समझ गईं और सास को धिक्कारने लगी।
                          -0-

Sunday 6 July 2014

अँधेरा



जगरूप सिंह किवी

पुराने कपड़ों के बदले बरतन बेचने वाली औरत से मेरा भाव नहीं बन पाया। मैंने कपड़ों के दो ढ़ेर उसके सामने लगा दिए थे। कई कपड़े तो बिल्कुल नए जैसे ही थे। पर वह स्टील का एक छोटा पतीला मात्र देने पर अड़ी हुई थी। मैं साथ में एक जग भी लेना चाहता था। आखिर मैंने कुछ सोच, उसे कपड़े देने से मना कर दिया।
कुछ देर बाद मैं अनाथालय में सभी कपड़े दान देकर वहाँ से बाहर आया तो मन में शांति थी। सोचा, कपड़े नंग-धड़ंग बेसहारा बच्चों के तन ढ़कने के काम आएँगे।
शाम को मैं अनाथालय के गेट के आगे से गुज़रा तो देखा कि वही बरतनों वाली मेरे कपड़ो को एक मैली-सी चादर में बाँध रही थी। वह चेहरे पर खचरी-सी मुस्कान लिए मेरी ओर देख रही थी। स्टील का छोटा पतीला मैनेजर की मेज पर पड़ा था।
                           -0-