Wednesday 16 April 2014

निर्मूल



दर्शन जोगा

बिशने के दोनों बेटे डेरे के आँगन में पीपल के पेड़ के नीचे चारपाई पर लेटे बिशने के पास आकर चुपचाप खड़े हो गए। बहुओं ने चारपाई के पैताने की ओर होकर बिशने के पाँव छूते हुए धीरे से कहा, मत्था टेकती हूँ, बापू जी।
बिशना चुप पड़ा रहा।
ठीक हो बापू जी?छोटी बहू बोली।
ठीक-ठूक तो ऐसा ही है भई। चार-पाँच दिन से ताप चढ़ता रहा है। रोटी भी कम ही खाता है। संतजी ने पुड़िया दी हैं, आज कुछ फर्क है,पास में बैठा संत का शागिर्द बोला, बिशन सिंह, तुम्हें लेने आए हैं।
मुझे पता है अपनी औलाद का। अब तो यहीं ठीक हूँ, जहाँ वक्त कट रहा है। बहुत हो ली।बिशना लेटे-लेटे बोला।
तुम कहते तो हो, पर बैठे अपनी अड़ी में ही हो यहाँ…छोटा बेटा बोला।
अच्छा! तुम यह कहते हो। पिछले साल मेरे पीछे रोज कंजर-कलेश होता था। यह बड़ा आकर कह गया था ‘हम तो नौकरी वाले हैं, दिन निकलते जाते हैं और सूरज छिपने पर घर मुड़ते हैं।और तूने भी तो कहा था ‘मैं अकेला हूँ, किधर-किधर जाऊँ?’ फिर मेरा तो कोई न हुआ। मेरा तो ऊपर वाला है। या फिर यह भगत है बेचारा, जिसके आसरे सुबह-शाम रोटी के दो कौर खाता हूँ…बाकी तुम दोनों को तुम्हारा हिस्सा दिया हुआ है। अपने हिस्से की जमीन मैंने डेरे के नाम करवा देनी है । तुम्हें तो कोई एतराज नहीं?बिशने ने लड़कों से पूछा।
बस यही कसर रह गई है।छोटा बेटा आक्रोश में बोला।
क्यों? हम क्या तुम्हारे बेटी-बेटे नहीं बापू जी? भगवान की कृपा से सब कुछ है। जीते रहें तुम्हारे पोते-पोतियाँ। तुम्हारे वारिस हैं। डेरों-गुरुद्वारों को तो निपूतों की जायदाद जाती है। अगर तुमने हमें जीते जी मारना है तो तुम्हारी मर्जी।बड़ी बहू बात सुनकर पूरे क्रोध में बोली।
भई सुरजीत कौर, मैंने जन्में और पाले तो जीवितों में रहने के लिए ही थे। और यह निपूतों वाली बात तुम तो आज कह रही हो, मुझे तो डेढ़ साल हो गया यहाँ सुनते को, जब से इस डेरे में चारपाई पर पड़ा दिन काट रहा हूँ।कहते हुए बिशन सिंह की आँखों के कोयों में पानी भर आया और वह लंबी आह भरकर चुप कर गया।
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