Saturday 22 February 2014

अपनी-अपनी चीज



जगरूप सिंह किवी

सब हाथों-पैरों में आ गए। सरकारी हूटर बज रहा था। लोग अपने घरों से निकल कर खुले आसमान के नीचे जमा होने शुरु हो गए। गुरुद्वारों व मंदिरों से अनाउंसमेंट हो रही थी। भूचाल किसी भी समय आ सकता था।
रमेश ने अपनी एफ.डी.आर, मकान की रजिस्टरी के कागज़, बीमे की रसीदें तथा चल व अचल संपति के सभी ज़रूरी कागज़ों को समेटा और बाहर की ओर दौड़ पड़ा। वह लगातार चीख रहा था। उसकी पत्नी ने अपने गहने एक थैली में डाले और बच्ची को आवाज़ें देती पति के पीछे भागी। दोनों बाहर खड़े अपनी बेटी रीटा को आवाजें दे रहे थे।
कुछ देर बाद रीटा एक हाथ पर दूसरा हाथ रखे धीरे-धीरे बाहर आई।
क्या कर रही थी बेवकूफ? तुझे पता नहीं मौत किसी भी वक्त…कहते हुए रमेश ने उसके मुँह पर एक चपेड़ जड़ दी।
पापा, खाने के लिए चने ला रही थी। जब भूख लगेगी तो हम सब खा लेंगे।उसकी छोटी-सी अंजलि में से कुछ भुने हुए चने नीचे गिर पड़े।
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Sunday 16 February 2014

प्रताप



सुखचैन थांदेवाला

बाबे निम्मे ने फिर हँसी-खुशी मना लिया कल रविदास का जन्मदिन?गली में आ रहे नंबरदार ने अपने घर के आगे बैठे निम्मे मोची को सरसरी तौर पर पूछा।
नाम तो उसका निर्मल सिंह था, पर गाँव वाले उसे निम्मा कहकर बुलाते थे और पीठ पीछे ‘निम्मा मोची’ कहते थे। निम्मा पहले जिमींदारों के मज़दूर के तौर पर सारे गाँव के जूते गाँठने का काम करता था। अब उसके बेटे और पोते ने बस-अड्डे पर जूतों की दुकान कर ली थी। निम्मा होश सँभालने के समय से ही अमृतधारी सिक्ख था। अब उसके पास कोई काम न था। वह अक्सर चौपाल पर गुरु-ज्ञान की बातें करने में लगा रहता। वह प्रत्येक वर्ष गुरु रविदास के जन्मदिवस पर अपने घर गुरु-ग्रंथ-साहिब के सहज-पाठ का भोग डालता था।
नंबरदार! हम जैसे गरीब भला क्या मनाएँगे बाबे का जन्मदिन! बेटे ने ऐसे ही मुझसे बाहर हो कार्ड बाँट दिए नगर में। कहता, पुन्य-दान हो जाएगा। लंगर भी बहुत बना लिया, पर लोग नहीं आए। फिर अड्डे पर बसें रोक-रोक कर खिलाया लोगों को। देग(प्रसाद का हलवा) फिर भी बच गई। उसे जल-प्रवाह कर के आया सुबह। क्या बात, इस बार तो तू भी नहीं आया, नंबरदार? निम्मे ने उलाहना दे अपनी सारी व्यथा सुनाई।
बाबा, मेरे तो रिश्तेदारी में मौत हो गई थी, संस्कार पर गया था, नहीं मैं तो ज़रूर आता भोग पर।नंबरदार अपना स्पष्टीकरण दे, फिर बोला, बाबा, आज कनेडा वालों के बुज़ुर्ग की बरसी पर नहीं जाना तुमने?
हाँ, मुझे भी जाना है, तैयार हूँ,निम्मे ने अँगोछा कंधे पर रखा और उठते हुए कहा, नंबरदार, हम तो सारे नगर के साँझे आदमी हैं।
कनेडा वालों के पटरी-फेर इलाके से बहुत लोग पहुँचे हुए थे। कोठी के सामने का खुला मैदान कारों, जीपों व स्कूटरों से भरा पड़ा था। रंग-बिरंगे शामियाने लगे हुए थे। श्री गुरु ग्रँथ साहिब की हजूरी में पंडाल संगत से खचाखच भरा हुआ था। माथा टेकने वालों की कतार लगी हुई थी। प्रसिद्ध रागी-जत्थे कीर्तन कर रहे थे। कनेडा वाला सरदार शाही लिबास में संगत के बीच विराजमान था।
निम्मा कतार में खड़ा, कल अपने घर पड़े भोग और आज पड़ रहे भोग में फर्क के बारे सोचने लगा। सारी संगत तब हैरान रह गई, जब निम्मे ने गुरु ग्रंथ साहिब को माथा टेक कर फिर कनेडा वाले सरदार को जा माथा टेका। सरदार ने दोनों हाथों से उसे रोकते हुए कहा, बाबा, तू तो पुराना अमृतधारी सिंह है, तुझे तो पता है कि गुरु ग्रंथ साहिब से बड़ा कोई नहीं होता। फिर मुझ पर क्यों भार चढ़ाते हो।
जवाब में निम्मे ने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा, नहीं सरदार जी, प्रताप तो सारा तुम्हारा ही है। गुरु ग्रंथ साहिब का भोग तो हमारे घर भी पड़ा था। सारे नगर में घर-घर कार्ड भी बाँटे थे, पर मुश्किल से कुछेक लोग ही पहुँचे।
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Saturday 8 February 2014

बदलते रिश्ते



गुरचरण चौहान

हाकम सिंह के बड़े बेटे नछत्तर की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई। जवानी में हुई इस मौत से घर में मातम छा गया था। उसकी जवान पत्नी, औरतों की पकड़ से निकल-निकल लाश के ऊपर गिरती छाती पीट रही थी।
लाश का अंतिम संस्कार हो गया। तीसरे दिन अस्थियां चुगी गईं। अस्थियां चुगवाने आए नछत्तर की ससुराल से एक बुजुर्ग ने हाकम सिंह से बात चलाई, हाकम सिंह जी, हमारी बेटी के लिए तो अब जग में अँधेरा ही अँधेरा है…पहाड़-से जीवन के लिए कोई तो आसरा चाहिए…कहो तो दशहरे के दिन हम छोटे बेटे के लिए पगड़ी ले आएँ…विचार कर लेना…रब का भाना मान कर दोनों बेटियाँ एक ही चुल्हे पर रोटी खा लेंगी…।
कोई बात नहीं, हमारी ओर से तो कोई एतराज नहीं…।हाकम सिंह ने नछत्तर के ससुराल वालों को धीरज बँधवाया।
माता-पिता ने नछत्तर से छोटे स्वर्ण को राजी कर लिया। परंतु स्वर्ण की पत्नी के पास जब यह बात पहुँची तो उसने घर में तूफ़ान खड़ा कर दिया। उसकी पत्नी कर्मजीत ने तो एक ही रट लगा रखी थी, कुछ हो जाए, मैंने ये नहीं होने देना। मैं अपने साईं को कैसे बाँट लूँ…।
कर्मजीत के इस निर्णय से उसके मायके वालों की भी सहमति थी।
दशहरे का दिन आ गया। कर्मजीत को मनाने के सभी प्रयास विफल रहे। आँगन में सोग प्रकट करने वालों से अलग होकर हाकम सिंह, उसकी पत्नी, स्वर्ण, कर्मजीत और नछत्तर व स्वर्ण के ससुर अभी भी इस मसले का हल ढूँढ़ने का प्रयास कर रहे थे। परंतु कर्मजीत अपने फैसले पर अड़ी हुई थी।
बात सुन लो भई सभी…मैं करूँगा ज़मीन के तीन हिस्से…एक हिस्से की ज़मीन दूँगा स्वर्ण को…नछत्तर का और मेरा हिस्सा होगा अलग…मैं तो नहीं चाहता था कि ज़मीन बंटे…चाहता था कि सारी का मालिक बने स्वर्ण…पर अब जब तुम्हारी अड़ी ही है तो अब मेरी भी अड़ी देखना…।लाठी के सहारे खड़े होते हुए हाकम सिंह ने अपना निर्णय सुनाया।
स्वर्ण के ससुराल वालों के मुँह खुले के खुले रह गए। वह कर्मजीत को समझाने लगे। ज़मीन बाँटने वाली बात ने सबको हिला दिया।
भोग पड़ जाने के बाद नछत्तर की ससुराल वाले स्वर्ण के पगड़ी बँधवा कर चले गए।
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Sunday 2 February 2014

चौकीदारी



रणजीत कोमल

दो-तीन डॉक्टर बदलने के बाद भी पाला सिंह की छाती का दर्द ठीक नहीं हुआ था। उससे दर्द सहन नहीं होता था। डॉक्टरों ने उसकी तीमारदारी में लगे बेटों को किसी बड़े अस्पताल में इलाज करवाने की सलाह दी।
पाला सिंह को लग रहा था कि उसका आखरी समय आ गया है। उसने आँसू भरी आँखों से अपने बेटों तथा जवान बेटी की तरफ देखा और बोला, बेटो, अब तो पल भर का भरोसा नहीं…ऊपर वाले ने पता नहीं कब बही खोल कर बुलावा भेज देना है…तुम्हारी माँ की लंबी बीमारी के कारण, बेटी को अपने हाथों विदा नहीं कर सका। अब तुमने मिलकर अपनी माँ को सँभालना है और बहन के हाथ पीले करने हैं।बातें करते हुए पाला सिंह ने एक गहरी साँस ली और वही उसकी अंतिम साँस बन गई।
पिता के आंतिम संस्कार के बाद बेटों ने फैसला किया कि बीमार माँ की जिम्मेदारी सबकी बराबर की होगी और शादी तक बहन माँ के साथ रहेगी।
तय समय के बाद माँ बेटी के साथ जब जूसरे बेटे के घर रहने पहुँची तो भीतर से उनके कानों में आवाज़ सुनाई दी, मैंने कहा जी, तुम्हारी माँ और बहन आ गईँ। तुम्हारी माँ का रोना तो रोना ही पड़ेगा, साथ में तुम्हारी बहन की रखवाली भी करनी पड़ेगी। अब मैं किस कुएँ में गिरूँ?
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