Sunday 24 March 2013

कर्ज



श्याम सुन्दर अग्रवाल

आशुतोष और मैं दोनों सहकर्मी थे। दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्र के दफ्तर में नियुक्ति थी। छोटा-सा नगर था। सुविधाएँ बहुत कम थीं। इतनी दूर की नियुक्ति को विभाग में सजा के तौर पर ही देखा जाता था।
खाना हम दोनों में से किसी को भी पकाना नहीं आता था। इसलिए हमने दफ्तर के पास ही एक चाय वाले को हमारे लिए खाना बनाने के लिए मना लिया था। सुबह नाश्ता हम अपने कमरे में ही कर लेते। लेकिन दोपहर और रात्रि के खाने के लिए चाय वाले के पास ही जाना पड़ता।
चाय वाले ने पी.सी.ओ. भी लगा रखा था। आसपास के लोग उसके पी.सी.ओ पर आकर फोन कर लेते थे। रात को जब भोजन करने जाते तो मैं भी वहीं से कभी-कभार घर फोन कर लेता। लेकिन आशुतोष हर रात घर पर फोन करता। मैंने कई बार उससे पूछा भी कि वह रोज घर पर ऐसी क्या बात करता है? लेकिन वह बात टाल जाता। वह खाना खाने से पहले फोन जरूर करता।
मैं एक बात बराबर नोट कर रहा था कि आशुतोष नाश्ते व दोपहर के खाने के वक्त सुस्त सा दिखता लेकिन रात का खाना वह खुल कर लेता।
एक रात पी.सी.ओ का फोन खराब था। फोन खराब देख आशुतोष बेचैन हो गया। उसने भोजन भी अनमने मन से ही किया। कमरे में वापस जाते वक्त मैंने कहा, आशु यार, कुछ तो है जो तुम मुझसे छिपा रहे हो? क्या तुम मुझे अपना मित्र नहीं मानते?”
‘नहीं, नहीं, ऐसा कुछ नहीं। बात तो बहुत छोटी-सी है। छुपाने लायक भी कुछ नहीं है…”
“फिर तुम बताते क्यों नहीं कि तुम रोज घर पर क्या बात करते हो?”
“बात तो कुछ नहीं यार! बस एक कर्ज है जिसे उतारने का प्रयास करता रहता हूँ।”
“कैसा कर्ज?
“…माँ का कर्ज है?”
“माँ का कर्ज! यार माँ का भी कोई कर्ज होता है?”
“हाँ, मुझ पर तो माँ का ही कर्ज है…बचपन से माँ जब तक मुझे खाना नहीं खिला देती थी, खुद खाना नहीं खाती थी। जब से मैं कमाने लगा हूँ, मैंने भी नियम बना लिया कि पहले माँ भोजन करेगी फिर मैं…बस इसलिए ही फोन कर माँ से पूछ लेता हूँ कि उसने भोजन कर लिया या नहीं। वह ‘हाँ’ कह देती है तो खाना स्वाद लगता है।”
मैंने देखा आशुतोष की आँखें नम हो गई थीं।
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Wednesday 20 March 2013

साँझ



विवेक

न मारो मम्मी, न मारो!दस वर्षीय भोलू ने अपनी माँ के आगे हाथ जोड़ते हुए कहा।
नहीं, मैं तुझे अभी बताती हूं। अब खेलेगा उसके साथ?कहते हुए ऊषा देवी ने डंडा लड़के के टखनों पर मारते हुए कहा।
डंडे की मार से लड़का चीख उठा। ऊषा देवी ने मारने के लिए फिर से हाथ उठाया ही था कि उसके पति कृष्णकाँत शर्मा ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया। पिता को आया देख, बचाव के लिए भोलू उसकी लातों से लिपट गया।
अब किधर जाता है? तुझे कितनी बार कहा, पर तुझ पर कोई असर नहीं।ऊषा देवी फिर भोलू की ओर लपकी।
क्या बात हो गई? क्यों लड़के को मार रही है?सहमे हुए भोलू की पीठ पर हाथ रखते हुए कृष्णकाँत ने पत्नी से पूछा।
होना क्या है, जब देखो मज्हबियों के लड़के के साथ खेलता रहता है। उसकी बाँह में बाँह डाले फिरता है। कभी खुद उसके घर चला जाता है, कभी उसे अपने घर ले आता है…मुझे नहीं ये बातें अच्छी लगतीं…इसे बहुत बार समझाया, पर सुनता ही नहीं। कहता है, वह मेरा दोस्त है…दोस्त ही बनाना है तो अपनी जात-बिरादरी वाला देख ले…।ऊषा देवी ने भोलू को घूरते हुए कहा।
छोड़ ऊषा, यह कौनसी बात हुई। हम भी दिहाड़ी करके खाने वाले हैं, वे भी मज़दूरी करके पेट भरते हैं। बता फिर फर्क कहाँ हुआ? हम भी गरीब, वे भी गरीब। हमारी तो साँझ हुई। जात-बिरादरी ने रोटी दे देनी है! रोटी तो मेहनत-मज़दूरी करके ही खानी है। यूँ ही न लड़के को मारा कर, खेलने दे जिसके साथ खेलता है। 
इतना कह उसने ऊषा देवी के हाथ से डंडा पकड़ कर फेंक दिया।
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Wednesday 13 March 2013

अपनी-अपनी किस्मत



दर्शन धंजल

रोटी खाते ही स्वर्ण की माँ की तबीयत एकदम बिगड़ गई। डॉक्टरों ने उसे बारीकी से चैक किया। कई टैस्ट हुए। उन्होंने स्वर्ण को स्पष्ट कह दिया कि दो दिन के भीतर आपरेशन करवा ले। साथ ही यह भी बता दिया कि पच्चीस-तीस हज़ार रुपये के खर्च का प्रबंध कर ले।
इतनी जल्दी, इतनी बड़ी रकम? वह सोच में पड़ गया। अस्पताल के पास वाले पी.सी.ओ. से ही उसने अपने भाई-बहनों को फोन कर दिए। उन्हें सब कुछ साफ-साफ बता दिया।
घर पहुँचते ही उसने पनी पत्नी की ओर सवालिया नज़रों से देखा।
“…इस बार भी वही बात…अच्छी चीज नहीं बताई डॉक्टर ने…।
फिर क्या होगा?
होना क्या है, आज या कल समय निकालो…दस-पंद्रह हज़ार रुपये जेब में डालो…चलो अस्पताल…और फिर अगले साल जो होगा, देखा जाएगा।पत्नी ने कहा।
स्वर्ण ने ठंडी आह भरते हुए कहा, इधर माँ के लिए भी डॉक्टर ने कहा है कि चौबीस घंटे में…और आगे वह कुछ न कह सका, जैसे पैंतीस-चालीस हज़ार के वजन के नीचे दब गया हो।
तभी पास पड़े टैलीफोन की घंटी बजने लगी।
हैलो…हैलो…बहन जी, सति श्री 'काल…और क्या हाल है?
वीर जी! तुम्हारे जीजा जी कल सुबह पंद्रह हज़ार रुपये लेकर पहुँच रहे हैं…छोटी को भी मैंने कह दिया है। वह भी सुबह बीस हज़ार रुपये लेकर पहुँच जाएगी। तुम बीबी को दाखिल करवा दो ताकि डॉक्टर अपना काम शुरू कर दें…पैसों की कोई चिंता न करना।
किस का फोन था? बड़ी ‘हाँ-हूँ, अच्छा-अच्छा’ करते रहे हो।
बाकी बातें तो बाद में करेंगे, पर पहले एक बात ध्यान से सुन ले…हमने डॉक्टर के पास नहीं जाना। प्रत्येक जीव अपनी किस्मत साथ लेकर आता है।
पत्नी उसकी ओर हैरानी से देख रही थी।
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Monday 4 March 2013

दीवारें



श्याम सुन्दर दीप्ति (डॉ.)


ससरी ’काल बापू जी! और क्या हाल है?कश्मीरे ने घर के दरवाजे के सामने गली में चारपाई पर बैठे बापू को कहा और साथ ही पूछा, जस्सी घर पर ही है?
हाँ बेटा! और तू सुना, राजी हैं सब?
हाँ बापू जी! मेहर है वाहेगुरू की! आपको शहर की गली में पेड़ के नीचे बैठा देख, गाँव की याद आ गई। शहरी तो बस घरों में ही घुसे रहते हैं…अच्छा बापू, मैं आता हूँ जस्सी से मिलके।कहकर वह अंदर चला गया।
जस्सी ने कश्मीरे के आने की आवाज़ सुन ली थी। वह कमरे से बाहर आ गया और कश्मीरे को गले मिलता अंदर ले गया।
अपनी बातें खत्म कर कश्मीरे ने पूछा, और बापू जी कब आए?
तबीयत कुछ खराब थी, मैं ले आया कि चलो शहर किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा देंगे। पर इन बुजुर्गों का हिसाब अलग ही होता है। कार में बिठाकर ले जा सकते हो, टैस्ट करवा सकते हो, पर दवाई-बूटी इन्होंने अपनी मर्जी से ही लेनी होती है।जस्सी ने अपनी बात बताई।
चलो! तूने दिखा दिया न। अपना फर्ज तो यही है बस।
वह तो ठीक है। अब तूने देख ही लिया न, घर के अंदर कमरों में ए.सी. लगे हैं, कूलर-पंखे सब हैं। पर नहीं, बाहर ही बैठना है, वहीं लेटना है। बुरा लगता है न। पर समझते ही नहीं।
तूने समझाया?  कश्मीरे ने बात का रुख बदलते हुए कहा।
बहुत माथा-पच्ची की।
चल। सभी को पता है, इन बुजुर्गों की आदतों का।कहकर वह उठ खड़ा हुआ।
वह बाहर आ एक मिनट बापू के पास बैठ गया और उसी अंदाज़ में बोला, बापू, तूने तो शहर का दृश्य ही बदल दिया।
हाँ बेटा! घर में पंखे-पुंखे सब हैं। पर कुदरत का कोई मुकाबला नहीं। एक बात और बेटा, आता-जाता व्यक्ति रुक जाता है। दो बातें सुन जाता है, दो बातें सुना जाता है। अंदर तो बेटा दीवारों को ही देखते रहते हैं।
यह तो ठीक है बापू! जस्सी कह रहा था, सभी कमरों में टी.वी. लगा है। वहाँ भी दिल बहल जाता है।कश्मीरे ने अपनी राय रखी।
ले ये भी सुन ले। मैं तो उसे दीवार ही कहता हूँ…अब पूछ क्यों?…बेटा, कोई उसके साथ अपने दिल की बात तो नहीं बाँट सकता न।
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