Wednesday 31 October 2012

शिक्षा



सुखदेव सिंह शाँत

एक छोटे से बच्चे ने ईंट उठा कर गली में जा रहे कुत्ते के पिल्ले के दे मारी और ऊँची आवाज़ में बोला, तेरी माँ की…चल दौड़ यहाँ से!
एक घर के आगे बैठी तीन पड़ोसनों ने बच्चे के मुख से इतनी गंदी गाली सुन कर मुँह में ऊंगलियाँ दे लीं।
एक औरत ने बच्चे को अपने पास बुलाया।
अरे बात सुन! कहाँ से सीखी तूने ये गाली?
बस सीख ली।बच्चा मचलता हुआ बोला।
बता तो सही। हमें भी पता चले कि कौन सिखाता है तुझे ये गालियाँ?
उस औरत ने फिर से ज़ोर डालते हुए पूछा।
बच्चा बोला, बस! एक दिन सब्जी में नमक कम था, पापा ने मम्मी को यही गाली दी थी। चाचा किसी से लड़ रहे थे तो यही गाली निकाल रहे थे। मुझे याद हो गई।      
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Monday 22 October 2012

इस बार



बिक्रमजीत नूर

बाबू कुलदीप राय ड्यूटी के लिए लेट हो रहा था और इधर पंडित जी के आने का कोई रंग-ढंग नहीं था। वह तो सुबह से कई चक्कर लगा आया था। वैसे तो उसने रात भी गुज़ारिश कर दी थी।
पिछले कई वर्षों से श्राद्धों में वे इसी पंडित को न्योता देते रहे हैं। आज भी कुलदीप राय के पिता का श्राद्ध था।
लगभग आठ बज चुके थे। खीर-पूरियाँ व हलवा वगैरा सब कुछ दो-ढाई घंटों से तैयार पड़ा था। कुलदीप राय खीझने लगा। पति-पत्नी के साथ दोनों बच्चे भी बिना कुछ खाए बैठे थे। फिर बच्चों ने तो स्कूल भी जाना था।
कुलदीप राय के पास तो छुट्टी भी कोई नहीं बची थी। ऊपर से दफ्तर में हिसाब-किताब की पड़ताल चल रही थी। आज तो समय से पहले जाना ज़रूरी था।
कुछ देर पहले फटे-हाल, बिखरे बालों वाले, भिखारी से दिख रहे एक आदमी ने अपने मुँह की ओर इशारा करते हुए उससे खाने को कुछ मांगा था। कुलदीप ने उस बुजुर्ग की ओर ध्यान नहीं दिया था। बुजुर्ग भी जल्दी ही आगे चला गया था।
बच्चों को तो तैयार कर स्कूल भेज, खाना बाद में वहीं पकड़ा आना।कुलदीप राय ने ऊँची आवाज़ में पत्नी को कहा, जो उसकी तरह ही परेशान थी।
बच्चों को स्कूल भेजने के पश्चात कुलदीप राय को लगा जैसे पंडित जी आ गए, पर वास्तव में वह भिखारी-सा दिखता बुजुर्ग ही था।
कुलदीप राय ने बिना समय गंवाए बुजुर्ग को अंदर बुलाया। उसके हाथ-पाँव धुलवाए और पोंछने के लिए नया तौलिया आगे कर दिया। चादर-बिछी दरी पर बैठाकर बुजुर्ग को बहुत ही श्रद्धा से भोजन करवाया। एक सौ एक रुपये नगद भेंट किए।
पेट भर खाने के बाद बेतहाशा संतुष्टी और खुशी के कारण बुजुर्ग से कुछ भी बोला नहीं जा रहा था।
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Monday 15 October 2012

दर्पण



राजिंदर कौर ‘वंता’

समाज से अमीर-गरीब, ऊँच-नीच व रंग-नस्ल की बीमारी को जड़ से उखाड़ देने का अपनी कलम से प्रयास करने वाला वह प्रतिभावान लेखक था। अपनी समाज-सुधार वाली कृतियों के लिए उसका कई बार सम्मान भी हो चुका था।
आज वह अपने दसवीं में पढ़ रहे बेटे के स्कूल में हो रहे समागम में बैठा था। उस के मस्तिष्क में इसी विषय पर एक कहानी का प्लाट घूम रहा था। मंच पर नाटक खेला जाना था। अचानक पर्दा उठा। उसने देखा कि पड़ोस में रहने वाला मोची का बेटा बादशाह का रोल अदा कर रहा था। उसका लड़का नौकर के रोल में उसे ‘जहाँपनाह’ कहते हुए बड़े अदब से सिर झुका रहा था।
कम्बख्त को कोई और रोल नहीं मिला करने को?उसने साथ बैठी पत्नी को कोहनी मारते हुए कहा।
उसकी पत्नी उसके मुख से समाजवाद का दर्पण चूर-चूर होता देख हैरान थी।
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Monday 8 October 2012

भीतरी ज़ख़्म



नायब सिंह मँडेर

बस-अड्डे पर बैठी तारो का अंदर आँखों के रास्ते फूट पड़ा। वह इतना रोई कि सुबकियाँ लेते उसका गला सूख गया। वह बेहोश हो गई। अपनी बेटी को तीज के त्यौहार का सामान देकर वापस आई मेलो ने देखा कि तारो चबूतरे पर औंधे-मुँह बेहोश पड़ी थी। उसने तारो को हिलाया और भागकर नलके से पानी लाकर तारो के मुंह को लगाया। तारो को कुछ होश आया।
क्या बात री, तेरा ये हाल? मेलो ने कहा।
तारो बिना कुछ बोले मेलो के सीने से लग कर फिर से सुबकने लगी।
अरी, सुख से तुझे किस बात की कमी है? अच्छी ज़मीन-जायदाद है, बहू-बेटे तेरी सेवा करने को। बेटी तेरे नहीं कोई, बी उसका दुःख है।मेलो ने रो रही तारो से कहा।
तारो ने दुपट्टे के पल्लू से मुँह पोंछते हुए कहा, मेलो, तुम तो मुझसे सौ गुना अच्छी है, जिसकी इकलौती बेटी, काँटा चुभे पर भी भागी आती है। मेरी जून कितनी खराब है, यह मैं ही जानती हूँ। दस दिन हो गए बुरी बीमारी लगी को, किसी ने पूछा तक नहीं। बेटी होती तो हाथों पर उठा लेती।अपना दर्द बता तारो फिर रो पड़ी।
ना  री, दुखी न हो, रब भली करेगा। चल घर चलें।
अरी मेलो, किस घर की बात करती है, घर तो उसी दिन पराया हो गया था, जब से तेरा जेठ गुजरा है। कोई जात नहीं पूछता।तारो ने दुखी मन का दर्द बयान किया।
अरी, बहू नहीं बुलाएगी, बेटे को तो तरस आएगा। चल मेरे साथ घर चल।मेलो ने ज़ोर देकर कहा।
मेलो, कौनसे बेटे की बात करती है, उससे तो ससुरालिए ही नहीं सँभलते। उसने आज मुझे धक्के देकर बाहर निकाल दिया।तारो फिर बेहोश हो गई। गाँव की पंचायत उसे उठा कर घर ले गई। बेटे का मुँह देखने को तरसती रही मेलो के मुख से स्वयं ही निकल गया, बेटे की माँ होने से तो बेटी की माँ होना ही अच्छा।
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