Friday 12 August 2011

खुशी की सौगात


सुधीर कुमार सुधीर

बाबू ज्ञान चंद की तनख़ाह कम थी और कबीलदारी पूरी। जब तनख़ाह मिलती तो ढ़ेर सारे बिल तथा अन्य खर्चे निकल आते। तनख़ाह में से कुछ बचा पाना कठिन कार्य लगता। माँ की दवा, बच्चों की फीस, राशन व दूध के बिल, मकान का किराया व अन्य छोटे-मोटे खर्चों में तनख़ाह पूरी हो जाती। बच्चों की फरमाइशों से डरता वह उन्हें बाज़ार ले जाने में भी झिझकता। पिछले कई माह से पत्नी एक साड़ी की माँग करती आ रही थी। लेकिन हाथ तंग होने के कारण टाल-मटोल हो रही थी।
उसे पत्नी के साथ बाज़ार गए एक मुद्दत हो गई थी। आज तनख़ाह मिली तो पत्नी उसके साथ मंदिर जाने की ज़िद्द करने लगी।
मंदिर के लिए चले तो बाबू ज्ञान चंद को ख़याल आया– ‘मंदिर तो एक बहाना है, जब वापस आएँगे तो बाज़ार में यह साड़ी लेने के लिए कहेगी। साड़ी कहाँ से?…पूरा बजट हिल जाएगा, सारा महीना कैसे निकलेगा?’
तभी उसकी पत्नी ने उसकी बाँह हिलाई और बोली, देखो बाज़ार में कितनी रौनक है! कभी-कभी बाज़ार ले आया करो…ज़रूरी नहीं कि बाज़ार खरीदारी के लिए ही आया जाए।
पत्नी की बात सुनकर बाबू ज्ञान चंद का उतरा चेहरा चमक उठा। वह पत्नी का हाथ दबाते हुए बोला, हाँ, तुम ठीक कहती हो। बाज़ार में खुशी का मोल तो नहीं लगता।
दोनों पति-पत्नी मंदिर जाकर घर लौट आए।
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