Sunday 31 July 2011

कलाकृति


सतिपाल खुल्लर

रेलवे स्टेशन के विश्रामघर के बाहर बने चबूतरे पर उसे न देख, वह घबरा-सा गया। अभी कल तो वह यहीं था!
पिछले कई महीनों से वह इस दरवेश भिखारी को देख रहा था। वह पहली गाड़ी से अपनी ड्यूटी पर जाता है। वह एक चित्रकार है और अपने रंग तथा ब्रुश साथ ही रखता है।
वह भिखारी किसी से कुछ माँगता नहीं। बस जो मिल जाए, वही खा लेता है। आलसी-सा, न नहाने की इच्छा, न दातुन-कुल्ला करने का मन। सदा मिट्टी से सना सा रहता। आने-जाने वालों की ओर हसरत भरी नज़रों से देखता। नैन-नक्श सुंदर, आखों में अजीब-सी चमक। पता नहीं क्यों वह ज़िंदगी से हार मान बैठा। चित्रकार उसे रोज देखता। उसके मन में उसका चित्र बनाने की इच्छा थी। कल उसे समय मिल गया। गाड़ी आधा घंटा लेट थी। वह उसके नजदीक एक बैंच पर बैठ गया और उसकी तरफ देखकर ब्रुश चलाने लगा।
चित्रकार को बार-बार अपनी ओर झाँकता देख, भिखारी झुँझला गया, क्या करते हो? मेरे को ऐसे क्यों घूरते हो?
कुछ नहीं, कुछ नहीं…बस…।
पंद्रह मिनट में ही चित्र तैयार कर चित्रकार ने उसे दिखाया तो वह बोला, यह कौन है?
यह तुम ही हो। तुम्हारा ही चित्र है यह…तुम्हारी फोटो।
मैं इतना सुंदर!वह चाव से उठ बैठा।
हाँ, तुम तो इससे भी सुंदर हो…बहुत सुंदर।
और आज भिखारी को वहाँ न देख, चित्रकार ने उस के बारे में स्टेशन मास्टर से पूछा।
कल आपके जाने के बाद वह नल के नीचे नहाकर मेरे पास आया था। मैंने उसे अपना पुराना सूट उसे पहनने को दे दिया। सूट पहन कर वह बहुत खुश हुआ।
पर वह गया कहाँ?
वह देखो, स्टेशन पर नया फर्श लग रहा है। वह वहीं मज़दूरी कर रहा है।
चित्रकार ने उधर अपनी जीती-जागती कलाकृति की तरफ देखा और मुस्करा दिया।
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Saturday 16 July 2011

हमने क्या लेना

गुरचरण चौहान


मैं और रणजोध सिंह निहंग हमारे गांव के साथ लगते गाँव फकरसर पिण्डी साहिब में लगते बैसाखी के मेले में पहुँचे ही थे कि समाधियों की ओर शोर-शराबा मच गया। जब मैं तथा रणजोध सिंह समाधियों की ओर गए तो पता लगा कि कुछ आवारा लड़कों ने माथा टेक रही लड़कियों से कोई गलत हरकत की थी। रणजोध सिंह आपे से बाहर हो गया, पकड़ लो इन मुस्टंडों को…कुत्ते के बीज…ठहरो तुम्हारी…।
रणजोध ने कमरबंद कमर पर कस लिया था। लड़के अपने मोटर-साइकिल पर बैठ भाग लिए थे।
चल छोड़, हमने क्या लेना…।मैंने निहंग का कड़े वाला हाथ पकड़ लिया था।
हम सारा दिन मेले में घूमते रहे। निहंग के माथे पर पड़ी त्योरियां सारा समय विष घोलती रहीं।
दिन ढ़ले तालाब की तरफ फिर शोर मचा। निहंग मुझे भीड़ में छोड़ तालाब की ओर दौड़ गया। भीड़ से बचता-बचाता मैं किसी तरह शोर-शराबे वाली जगह पहुँचा। नहाने वाली जगह पर एक निहंग ने किसी औरत से अश्लील हरकत की थी। नंगी तलवार ऊपर उठा ललकारे मारता रणजोध सिंह, उस निहंग के चारों ओर चक्कर लगा रहा था।
मैंने फिर रणजोध की तलवार वाली बाँह पकड़ ली, छोड़ परे निहंग, हमने क्या लेना…!
इन पाखंडियों ने ही तो पंथ को बदनाम किया है…छोड़ दे मुझे मास्टर…अगर कलगीधर दशमेश-पातशाह भी ‘हमने क्या लेना’ वाली बात सोचते तो आज हमारा इतिहास कुछ और ही होना था।
मुझे लगा जैसे मेरी रूह मुझमें से मनफ़ी हो गई है।
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Saturday 9 July 2011

अंतर

एम. अनवार अंजुम

राजकीय प्राथमिक विद्यालय से पाँचवीं की परीक्षा पास करने के पश्चात राजू ने राजकीय हाई स्कूल में दाखिला ले लिया।
प्राथमिक स्कूल में पढ़ते समय उसे स्कूल से अनुपस्थित रहने की आदत पड़ गई थी। हाई स्कूल में भी वह पाँच दिन अनुपस्थित रहने के बाद स्कूल पहुँचा। कक्षा इंचार्ज ने उसे कक्षा से बाहर कर दिया।
राजू बाहर जाने की जगह मैडम रश्मि के पास गया और उस की टाँगें दबाने लग गया। मैडम ने उसे परे धकेलते हुए कहा, जा, अपने पिता को साथ लेकर आना।
यह सुन राजू ने मिन्नत की, मैडम, मुझे क्लास से बाहर न निकालो। मैं आप के बालों में तेल की मालिश कर दिया करूँगा।
बद्तमीज, निकल जा अभी स्कूल से बाहर…।मैडम ने राजू के मुँह पर जोरदार चपेड़ मारते हुए हुक्म सुनाया।
अपनी गाल को पलोसते हुए स्कूल से बाहर जाते हुए राजू पहले वाले स्कूल की मैडम और मैडम रश्मि के व्यवहार में अंतर का कारण ढूँढ़ने का प्रयास कर रहा था।
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Saturday 2 July 2011

भड़ास


हरप्रीत सिंह राणा

दिन भर दफ्तरी फाइलों में मगज खपा, छुट्टी के बाद वह थका-हारा सुस्त रफ्तार से साइकिल चलाता हुआ घर जा रहा था। एक मोड़ पर उसका साइकिल दूसरी ओर से आ रहे दो लाल फीतियों वाले शराबी के साइकिल से जा टकराया। दोनों गिरते-गिरते बचे। गलती पुलिसवाले की थी। वह शराब के नशे में गुट्ट, गलत दिशा में चल रहा था।  पुलिसवाला उसकी गाल पर एक ज़ोरदार थप्पड़ जड़ दहाड़ा, साले, अँधा है क्या? देख कर साइकिल नहीं चला सकता?
वह गुस्से में काँपने लगा, पर शराबी पुलिसवाले के आगे कुछ भी बोलने की हिम्मत न कर सका। वह सब्र का घूँट पी कर रह गया। एक दफ्तरी बाबू हवलदार के सामने क्या बोलता। हवलदार की गालियाँ सुनता वह चुपचाप अपने राह चल दिया। लेकिन इस असहनीय अपमान से उसकी मानसिक दशा बिगड़ गई थी। वह हाँफता हुआ तेजी से सइकिल दौड़ाता रहा था। मन ही मन वह उस पुलिसवाले की माँ-बहन एक करता हुआ मन को शांति दे रहा था।
अचानक उसका साइकिल पैदल जा रहे एक प्रवासी मज़दूर में जा टकराया। मज़दूर दिन भर की मेहनत के बाद रात के भोजन के लिए राशन का थैला उठाए जा रहा था। मज़दूर गिर गया और उसके थैले का राशन सड़क पर बिखर गया। उसने गिर गए मज़दूर की पसलियों पर चार-पाँच ठोकरें लगा दीं। मज़दूर दर्द से चीख उठा।
कुत्ते, हरामजादे…तेरी बहनकी…साले, एक तरफ होकर नहीं चल सकता?उसने गालियों की बौछार कर दी। फिर एक-दो लातें और जमा साइकिल उठा बड़बड़ाता हुआ घर की ओर चल दिया। अब उसकी आँखों में जीत की चमक थी और मन हल्का फूल-सा हो गया था।
मज़दूर दर्द से कुरलाता हुआ उठा। उसकी आँखों से परल-परल आँसू बह रहे थे। तभी वहाँ से गुजरने वाला एक आवारा कुत्ता सड़क पर बिखरे आटे को सूँघने लगा। मज़दूर ने फुर्ती से सड़क पर गिरी अपनी जूती उठाई और ज़ोर से कुत्ते के दे मारी। कुत्ता ‘चऊँ-चऊँ’ करता हुआ भाग गया। मज़दूर ने कुत्ते को एक भद्दी-सी गाली दी और बिखरा सामान समेटता हुए अपने राह चल दिया।
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