बिक्रमजीत नूर
पत्नी दस-बारह दिन के लिए मायके चली गई थी, समस्या ही कुछ ऐसी आ गई थी। गुरदेव ने अपनी बूढ़ी माँ को गाँव से बुला लिया। वह बच्चों को संभालने के साथ-साथ रसोई का काम भी अच्छी तरह कर लेती थी।
माँ ने सारा काम भी जी-जान लगा कर किया। अपने बूढ़े व बीमार शरीर की कभी परवाह नहीं की। झाड़ू-पोंछे से लेकर बर्तन माँजने तक के सारे काम बिना गरमी की परवाह किए क्षणों में ही निपटाती रही। उसकी बस एक ही चिंता थी– बेटे को तकलीफ नहीं होनी चाहिए। यद्यपि उसे दो-तीन बार सख्त सिरदर्द व बुखार हो गया था।
गुरदेव मस्त व बेफिक्र रहा। समय ठीक-से गुजर गया। माँ का बच्चों में मन लगा रहा।
पत्नी वापस आ गई। गुरदेव जैसे उस के लिए बेताब था। पत्नी की अहमियत का पता तो उसकी गैरहाज़िरी में ही लगता है। माँ के घर में होने के बावजूद, जैसे घर में सब कुछ उथल-पुथल सा गया था। गुरदेव स्वयं शारीरिक व मानसिक रूप से अस्वस्थ-सा महसूस कर रहा था।
अब मन में प्यार के साथ-साथ बातों का भी तूफान उठ खड़ा हुआ था। परंतु घर में माँ के होते यह सब कुछ संभव नहीं था। किराए के मकान के भीड़े होने के कारण बड़ी दिक्कत थी।
दो दिन व दो रातें पत्नी से बिना ‘बोल-चाल’ के ही गुजर गईं। तीसरे दिन गुरदेव ने माँ को बड़े प्यार से कहा, “माँ, मैं तुझे गाँव ही छोड़ आता हूँ, यहाँ गरमी बहुत है। तुम्हें बहुत तकलीफ हो रही होगी।”
गुरदेव ने माँ की ओर देखा, बूढ़े चेहरे पर मस्कान फैल गई थी।
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