निरंजन बोहा
“रात की बची-खुची बासी रोटी दे दो। भला होगा तुम्हारा।” भिखारिन लड़की ने करुणा भरी आवाज दी।
“भाग यहाँ से! पता नहीं कहाँ से आ जाती हैं सवेरे-सवेरे मनहूस शक्लें!” भीतर से सख्त और रूखी मर्दानी आवाज आई।
“गरीब पर तरस करो…! तुम्हारे बच्चें जीते रहें…! खुशियाँ बनी रहें!” लड़की ने फिर प्रार्थना की।
“ठहर तू इस तरह नहीं जाएगी।” गुस्से भरी आवाज के साथ मर्द बाहर आया। लड़की के घिसकर झीने हो चुके कपड़ों में से उसके जवान शरीर को देख, वह जहाँ था वहीं रुक गया। उसने अपने होठों पर जीभ फेरी और कहा, “तू ठहर, मैं तेरे लिए रोटी लेकर आता हूँ।”
आवाज में एकाएक नरमी भरकर वह तेजी से भीतर गया और गरम रोटियों के ऊपर आचार रख तुरंत लौट आया।
लड़की तब तक अपने दुपट्टे से छाती को ढकते हुए गली का मोड़पार कर चुकी थी।
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2 comments:
भावपूर्ण!!
इस संसार में इसी तरह का दोहरा बर्ताव पाया जाता है..हर जगह इसी तरह के लोग घाट लगाये बैठे है...अच्छी कहानी !!!!
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