Friday 31 December 2010

स्वागतम्

           ‘पंजाबी लघुकथा’ के सभी शुभचिंतकों  को नववर्ष की हार्दिक    शुभकामनाएँ! नववर्ष आपके समस्त परिवार के लिए मंगलमय हो!

Monday 27 December 2010

बासमती की महक

सतिन्द्र कौर

क्या हुआ?
एक्सीडेंट! ट्रक वाले ने एक आदमी को नीचे दे दिया।
वह भीड़ में आगे बढ़ा। खून से लथपथ लाश उससे देखी न गई।
चावल तो बासमती लगते है?उसके कान में आवाज पड़ी।
बढ़िया बासमती है। देख न कितनी अच्छी महक आ रही है।
ओ हो! कितना ज्यादा नुकसान हो गया। पाँच किलो तो होंगे ही?
हाँ। थैला भरा था।
उसने देखा, उसके पास ही खड़े मैली बनियान पहने दो आदमी लाश के पास बिखरे पड़े चावलों को बड़ी हसरत से देख रहे थे।
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Wednesday 22 December 2010

वर्दी


                                                                                            
 हरभजन खेमकरनी

हवेली के सामने बैठा सरपंच अपने समर्थकों के साथ मामले निपटाने संबंधी विचार-विमर्श कर रहा था। उनके समीप ही छुट्टी पर आया सरपंच का बेटा फौजी-वर्दी कसे बैठा था। वह अपनी मित्र-मंडली को फौज के किस्से चटखारे ले-ले कर सुना रहा था।
तभी गाँव लौटा सूबेदार निशान सिंह अपनी दलित बस्ती में जाने के लिए हवेली के सामने से गुजरा। उसे देखते ही सरपंच के बेटे ने खड़े होकर जोरदार सैल्यूट मारा। सैल्यूट का उत्तर देकर सूबेदार जब थोड़ा आगे बढ़ गया तो पीछे से किसी ने शब्दबाण छोड़े–
आज़ादी तो इन्हें मिली है। देखा सूबेदार का रौब! सरपंच का बेटा भी सैलूट मारता है।
भाऊ जी, आदमी को कौन पूछता है! यह तो कंधों पर लगे फीतों की इज्जत है।
कोई बात नहीं, सूबेदार को संदेश भेज देते हैं कि आगे से वर्दी पहन कर गाँव में न आया करे। सरपंच ने शून्य में घूरते हुए कहा।
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Friday 10 December 2010

एक उज्जवल लड़की

श्याम सुन्दर अग्रवाल

रंजना, उसकी प्रेयसी, उसकी मंगेतर दो दिन बाद आई थी। आते ही वह कुर्सी पर सिर झुका कर बैठ गई। इस तरह चुप-चाप बैठना उसके स्वभाव के विपरीत था।

क्या बात है मेरी सरकार! कोई नाराजगी है?कहते हुए गौतम ने थोड़ा झुक कर उसका चेहरा देखा तो आश्चर्यचकित रह गया। ऐसा बुझा हुआ और सूजी आँखों वाला चेहरा तो रंजना के सुंदर बदन पर पहले कभी नहीं देखा था। लगता था जैसे वह बहुत रोती रही हो।

ये क्या सूरत बनाई है? कुछ तो बोलो?उसने रंजना की ठोड़ी को छुआ तो वह सिसक पड़ी।

मैं अब तुम्हारे काबिल नहीं रही!वह रोती हुई बोली।

गौतम एक बार तो सहम गया। उसे कुछ समझ नहीं आया। थोड़ा सहज होने पर उसने पूछा, क्या बात है रंजना? क्या हो गया?

मैं लुट गई…एक दरिंदे रिश्तेदार ने ही लूट लिया…।रंजना फूट-फूट कर रो पड़ी, अब मैं पवित्र नहीं रही।

एक क्षण के लिए गौतम स्तब्ध रह गया। क्या कहे? क्या करे? उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। रंजना का सिर सहलाता हुआ, वह उसके आँसू पोंछता रहा। रोना कम हुआ तो उसने पूछा, क्या उस वहशी दरिंदे ने तुम्हारा मन भी लूट लिया?

मैं तो थूकती भी नहीं उस कुत्ते पर…!सुबकती हुई रंजना क्रोध में उछल पड़ी। थोड़ी शांत हुई तो बोली, मेरा मन तो तुम्हारे सिवा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकता।

गौतम रंजना की कुर्सी के पीछे खड़ा हो गया। उसने रंजना के चेहरे को अपने हाथों में ले लिया। झुक कर रंजना के बालों को चूमते हुए वह बोला, पवित्रता का संबंध तन से नहीं, मन से है रंजना। जब मेरी जान का मन इतना पवित्र है तो उसका सब कुछ पवित्र है।

रंजना ने चेहरा ऊपर उठा कर गौतम की आँखों में देखा। वह कितनी ही देर तक उसकी प्यार भरी आँखों में झाँकती रही। फिर वह कुर्सी से उठी और उसकी बाँहों में समा गई।

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Thursday 2 December 2010

रिश्तों का अंतर

हरभजन खेमकरनी

अपने एक संबंधी के विवाह समारोह में शामिल होने के लिए वह गाँव के बस-स्टैंड पर बस की प्रतीक्षा कर रहा था। उस के साथ उसकी नवविवाहित पत्नी, जवान साली तथा अविवाहित जवान बहन थीं। बस जैसे ही आकर उनके पास रुकी, वह सीटें रोकने के लिए जल्दी से बस में चढ़ गया। पिछले दरवाजे के पास ही तीन सवारियों वाली खाली सीट पर वह बैठ गया। उस की पत्नी उस के दाहिनी ओर बैठ गई और साली बाईं तरफ । उसकी बहन उनके पास आकर खड़ी हो गई। उसने बस में नज़र दौड़ाई। अगले दरवाजे के पास दो वाली सीट पर अकेला नौजवान बैठा था। खाली सीट की ओर इशारा करते हुए वह अपनी बहन से बोला, बीरो, तू उस सीट पर जाकर बैठ जा।

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