Monday 5 April 2010

आसरा



सुरिन्द्र कैले

उम्र भर की नौकरी से पैसै-पैसा जोड़, उसने बढ़िया कोठी बनाने की तमन्ना पूरी कर ली। नौकरी से निवृत्त होने के पश्चात वह उस कोठी में रहने लगा। पेंशन घर का खर्च पूरा नहीं कर पाती थी। शहर से मिलने आए बहू-बेटे को अपनी आर्थिक-तंगी के बारे में बताते हुए उसने सहायता की आस की।
“पिताजी, बड़े शहर के खर्चों का तो तुम्हें पता ही है। बड़ी मुश्किल से गुजर होती है, नहीं तो मैं कुछ न कुछ जरूर भेजता रहता।” बेटे ने असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा, “हाँ, अगर आप यह कोठी किराये पर दे दो और खुद पीछे बने दो कमरों में रिहायश कर लो तो कम से कम चार हजार रुपये महीने की आमदन हो सकती है।”
“मैं ऐसा नहीं कर सकता। बढ़िया कोठी में रहने की रीझ का गला नहीं घोंट सकता।” वह कोठी किराये पर देने को तैयार नहीं था।
“ऐसा करने से आपकी सभी चिंताएं समाप्त हो जाएंगी।” बहू ने पति की बात का समर्थन किया।
उसने ‘न’ में सिर हिलाया तथा शयन-कक्ष में चला गया।
अगले दिन बहू-बेटा दिल्ली चले गए।
उसने सोच-विचार किया तथा कोठी किराये पर चढ़ा दी।
“तुम उदास क्यों हो? अब अपने को कोई फिक्र नहीं। किसी के मुँह की ओर देखने की जरूरत नहीं, चिंता दूर हो गई।” सर्वेंट क्वाटर में सामान टिकाते हुए पत्नी ने दिलासा दिया।
“बुढ़ापे में बच्चे सहारा न दे सके, इस बेजान कोठी ने आसरा दे दिया।” उसने सहमत होते हुए कहा।
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