Friday 31 December 2010

स्वागतम्

           ‘पंजाबी लघुकथा’ के सभी शुभचिंतकों  को नववर्ष की हार्दिक    शुभकामनाएँ! नववर्ष आपके समस्त परिवार के लिए मंगलमय हो!

Monday 27 December 2010

बासमती की महक

सतिन्द्र कौर

क्या हुआ?
एक्सीडेंट! ट्रक वाले ने एक आदमी को नीचे दे दिया।
वह भीड़ में आगे बढ़ा। खून से लथपथ लाश उससे देखी न गई।
चावल तो बासमती लगते है?उसके कान में आवाज पड़ी।
बढ़िया बासमती है। देख न कितनी अच्छी महक आ रही है।
ओ हो! कितना ज्यादा नुकसान हो गया। पाँच किलो तो होंगे ही?
हाँ। थैला भरा था।
उसने देखा, उसके पास ही खड़े मैली बनियान पहने दो आदमी लाश के पास बिखरे पड़े चावलों को बड़ी हसरत से देख रहे थे।
                                -0-

Wednesday 22 December 2010

वर्दी


                                                                                            
 हरभजन खेमकरनी

हवेली के सामने बैठा सरपंच अपने समर्थकों के साथ मामले निपटाने संबंधी विचार-विमर्श कर रहा था। उनके समीप ही छुट्टी पर आया सरपंच का बेटा फौजी-वर्दी कसे बैठा था। वह अपनी मित्र-मंडली को फौज के किस्से चटखारे ले-ले कर सुना रहा था।
तभी गाँव लौटा सूबेदार निशान सिंह अपनी दलित बस्ती में जाने के लिए हवेली के सामने से गुजरा। उसे देखते ही सरपंच के बेटे ने खड़े होकर जोरदार सैल्यूट मारा। सैल्यूट का उत्तर देकर सूबेदार जब थोड़ा आगे बढ़ गया तो पीछे से किसी ने शब्दबाण छोड़े–
आज़ादी तो इन्हें मिली है। देखा सूबेदार का रौब! सरपंच का बेटा भी सैलूट मारता है।
भाऊ जी, आदमी को कौन पूछता है! यह तो कंधों पर लगे फीतों की इज्जत है।
कोई बात नहीं, सूबेदार को संदेश भेज देते हैं कि आगे से वर्दी पहन कर गाँव में न आया करे। सरपंच ने शून्य में घूरते हुए कहा।
                         -0-

Friday 10 December 2010

एक उज्जवल लड़की

श्याम सुन्दर अग्रवाल

रंजना, उसकी प्रेयसी, उसकी मंगेतर दो दिन बाद आई थी। आते ही वह कुर्सी पर सिर झुका कर बैठ गई। इस तरह चुप-चाप बैठना उसके स्वभाव के विपरीत था।

क्या बात है मेरी सरकार! कोई नाराजगी है?कहते हुए गौतम ने थोड़ा झुक कर उसका चेहरा देखा तो आश्चर्यचकित रह गया। ऐसा बुझा हुआ और सूजी आँखों वाला चेहरा तो रंजना के सुंदर बदन पर पहले कभी नहीं देखा था। लगता था जैसे वह बहुत रोती रही हो।

ये क्या सूरत बनाई है? कुछ तो बोलो?उसने रंजना की ठोड़ी को छुआ तो वह सिसक पड़ी।

मैं अब तुम्हारे काबिल नहीं रही!वह रोती हुई बोली।

गौतम एक बार तो सहम गया। उसे कुछ समझ नहीं आया। थोड़ा सहज होने पर उसने पूछा, क्या बात है रंजना? क्या हो गया?

मैं लुट गई…एक दरिंदे रिश्तेदार ने ही लूट लिया…।रंजना फूट-फूट कर रो पड़ी, अब मैं पवित्र नहीं रही।

एक क्षण के लिए गौतम स्तब्ध रह गया। क्या कहे? क्या करे? उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। रंजना का सिर सहलाता हुआ, वह उसके आँसू पोंछता रहा। रोना कम हुआ तो उसने पूछा, क्या उस वहशी दरिंदे ने तुम्हारा मन भी लूट लिया?

मैं तो थूकती भी नहीं उस कुत्ते पर…!सुबकती हुई रंजना क्रोध में उछल पड़ी। थोड़ी शांत हुई तो बोली, मेरा मन तो तुम्हारे सिवा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकता।

गौतम रंजना की कुर्सी के पीछे खड़ा हो गया। उसने रंजना के चेहरे को अपने हाथों में ले लिया। झुक कर रंजना के बालों को चूमते हुए वह बोला, पवित्रता का संबंध तन से नहीं, मन से है रंजना। जब मेरी जान का मन इतना पवित्र है तो उसका सब कुछ पवित्र है।

रंजना ने चेहरा ऊपर उठा कर गौतम की आँखों में देखा। वह कितनी ही देर तक उसकी प्यार भरी आँखों में झाँकती रही। फिर वह कुर्सी से उठी और उसकी बाँहों में समा गई।

-0-

Thursday 2 December 2010

रिश्तों का अंतर

हरभजन खेमकरनी

अपने एक संबंधी के विवाह समारोह में शामिल होने के लिए वह गाँव के बस-स्टैंड पर बस की प्रतीक्षा कर रहा था। उस के साथ उसकी नवविवाहित पत्नी, जवान साली तथा अविवाहित जवान बहन थीं। बस जैसे ही आकर उनके पास रुकी, वह सीटें रोकने के लिए जल्दी से बस में चढ़ गया। पिछले दरवाजे के पास ही तीन सवारियों वाली खाली सीट पर वह बैठ गया। उस की पत्नी उस के दाहिनी ओर बैठ गई और साली बाईं तरफ । उसकी बहन उनके पास आकर खड़ी हो गई। उसने बस में नज़र दौड़ाई। अगले दरवाजे के पास दो वाली सीट पर अकेला नौजवान बैठा था। खाली सीट की ओर इशारा करते हुए वह अपनी बहन से बोला, बीरो, तू उस सीट पर जाकर बैठ जा।

-0-

Thursday 18 November 2010

रिश्ता

डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति

मोगा से रास्ते की सवारी कोई न हो, एक बार फिर देख लो।कहकर कंडक्टर राम सिंह ने सीटी बजाई और बस अपने रास्ते पड़ गई।
बस में बैठे निहाल सिंह ने अपना गाँव नज़दीक आते देख, सीट छोड़ी और ड्राईवर के पास जाकर धीमे से बोला, डरैवर साब जी, जरा नहर के पुल पर थोड़ा-सा ब्रेक पर पाँव रखना।
क्या बात है? कंडक्टर की बात नहीं सुनी थी?ड्राइवर ने खीझकर कहा।
अरे भई, जरा जल्दी थी। भाई बनकर ही सही। देख, तू भी जट और मैं भी जट। बस जरा-सा रोक देना।निहाल सिंह ने गुजारिश की।
ड्राइवर ने निहाल सिंह की ओर देखा और फिर धीमे से कहा, मैं कोई जट-जुट नहीं, मैं तो मजबी हूँ।
निहाल सिंह ने थोड़ा रुककर फिर कहा, तो क्या हुआ? सिक्ख भाई हैं हम, वीर(भाई) बनकर रोक दे।
ड्राइवर इस बार जरा मुस्कराया और बोला, मैं सिक्ख भी नहीं हूँ, सच पूछे तो।
तुम तो यूँ ही मीन-मेख में पड़ गए। आदमी ही आदमी की दारू होता है। इस से बड़ा भी कुछ है।
जब निहाल सिंह ने इतना कहा तो ड्राइवर ने गौर से उसे देखा और ब्रेक लगा दी।
क्या हुआ?कंडक्टर चिल्लाया, मैने पहले नहीं कहा था, किस लिए रोक दी?
कुछ नहीं, कुछ नहीं। एक नया रिश्ता निकल आया था।ड्राइवर ने कहा। निहाल सिंह तब तक नीचे उतर चुका था।
-0-

Thursday 11 November 2010

हवा का झोंका

गुरचरण चौहान

विदेश से लौटा शेखर भावुक होकर दिल्ली से रेल के दूसरे दर्जे के डिब्बे में सवार हो गया। डिब्बे में बेहद गर्मी और घुटन थी। दो-तीन स्टेशन निकल जाने के बाद, टी.टी.ई. से सम्पर्क कर वह ए.सी. डिब्बे में जा बैठा। ए.सी. डिब्बे में बैठकर उसे लगा जैसे वह स्वर्ग में आ गया हो।
दो-तीन स्टेशन गुजरने के बाद उसे महसूस होने लगा, जैसे यहाँ अलग ही तरह की घुटन हैचुपचाप अखबार पढ़ रहे लोग…अपने आप में मस्त, एक दूसरे को घूर रहे चेहरे…एक बोझिल-सा वातावरण। उसके कान तो अपनी माँ-बोली के मिश्री जैसे बोल सुनने को तरस रहे थे। उसे लगा जैसे वह ए.सी. डिब्बे में नहीं, फिर से विदेश में आ गया हो।
एक स्टेशन आया। गाड़ी रुकी। वह ए.सी. डिब्बे से छलांग लगा दूसरे दर्जे के डिब्बे में जा बैठा। उसके व्यक्तित्व को देख, खिड़की से सटे बैठे गाँव के एक मुसाफिर ने उठकर उसे जबरन सीट पर बैठा दिया। उस अधेड़ ग्रामीण मुसाफिर ने अपने थैले से एक मुट्ठी मूँगफली उस की तरफ बढ़ाई। उसने मूँगफलियाँ दोनो हाथों को जोड़ प्रसाद की तरह लीं। आसपास बैठी सवारियाँ मूँगफली पहले से ही खा रही थीं। उसने अनुमान लगाया, यह इस ग्रामीण की ओर से बाँटा गया प्रसाद है।
सीट पर बैठ, खिड़की से कोहनी टिका, उसने कमीज का कालर गरदन से पीछे किया। अब उसने महसूस कियाहवा के झोंके उसकी गरदन के आसपास स्पर्श कर रहे थे।
-0-

Thursday 21 October 2010

छुटकारा

केवल राम रोशन

बस अड्डे के एक कोने की तरफ सवारियों की भीड़ लगी रहती। कई तरफ जाने वाली बसें यहाँ रुकती थीं और साथ ही बड़े पीपल की छाँव दूर तक फैली हुई थी। इस तरफ ही एक कोने में एक मोची सुबह से शाम तक जूतों की मरम्मत करता और अपना व अपने बच्चों का पेट पालता। वह एक बात से बेहद दुखी था कि सवारियाँ उसके पिछली ओर कोने में पेशाब कर जातीं। वह सारा दिन उसकी बदबू से दुखी रहता। अगर किसी को पेशाब करने से रोकता तो वह उसके गले पड़ जाता।
आखिर उसे एक तरकीब सूझी। उसने उस जगह को साफ किया और पाँच ईंटों को सफेदी कर वहाँ एक मढ़ी-सी बना दी। रोज सुबह वह वहाँ एक चवन्नी रख देता।
अब जो कोई भी उधर जाता, पेशाब करने की बजाए एक सिक्का फेंक, माथा टेक कर वापस लौट आता।
अब मोची बदबू से छुटकारा भी पा चुका था और रोज शाम को पाँच-छः रुपये की रेजगारी भी घर ले जाता था।
-0-

Friday 15 October 2010

मायाजाल

दर्शन मितवा

वह सहज रूप से चला जा रहा था।
सामने सड़क पर पड़े पैसे उसे नज़र आए तो चारों ओर से चौकस हो, पैसे उठा उसने अपनी मुट्ठी खोली तो देखा, दो रुपए थे। एक-एक के दो नोट।
क्षण भर के लिए वह खुश हुआ और रुपए जेब में डाल कर आगे चल पड़ा। फिर उसे जैसे कुछ याद गया। उसकी रफ्तार पहले से धीमी हो गई।
अगर कहीं ये दोनों दस-दस के नोट होते तो बात बन जाती।यह सोचकर वह उदास हो गया।
कम से कम कुर्ता-पायजामा हीअगर कहीं सौ-सौ के होते तोपौ-बारह हो जातीवाह रे भगवान, जब देने ही लगा था तो बस दो ही!…तू देता तो है, पर हाथ भींचकर। कभी एक साथ दे दे बीस-पचास हजारहम भी जिंदा लोगों में हो जाएँ
सोचते-सोचते उसने अपना हाथ पैंट की जेब में ऐसे डाला जैसे रुपए वास्तव में ही दो से बढ़ गए हों। मगर उसका कलेजा धक से रह गया।
उसका हाथ जेब के आरपार था। दो रुपए फटी जेब से कहीं गिर गए थे।बसवह रुआँसा हो गया, “वे भी गए साले।आज की रोटी का ही चल जाता।
वह फटी जेब में हाथ डाल वहीं खड़ा हो गया और चारों ओर ऐसे निगाह डाली जैसे अपना कुछ खोया हुआ ढूँढ रहा हो।
-0-

Sunday 26 September 2010

कमानीदार चाकू

जगदीश अरमानी

शहर की हवा बड़ी खराब थी। इतनी खराब कि किसी भी वक्त कोई भी घटना घट सकती थी। आगजनी, खून-खराबा और लूटमार की घटनाएँ आम घटती थीं।

वह जब भी घर से निकलता, उसकी पत्नी उसके घर लौटने की सौ-सौ मन्नतें मानती। जब तक वह घर न लौट आता, उसकी पत्नी को चैन न पड़ता। उसका एक पैर घर के भीतर और दूसरा बाहर होता।

वह भी अब घर से बाहर निकलते हुए, अपनी जेब में कमानीदार चाकू रखता और सोचताअगर कोई बुरा आदमी मेरे काबू आ गया तो एक बार तो उसकी आँतें निकालकर रख दूँगा।

वह सोचता हुआ जा रहा था कि अचानक बाजार में एक मोड़ आने पर उसका स्कूटर किन-किन करता सड़क पर से फिसल गया।

दूसरे सम्प्रदाय के दो अधेड़ उम्र के आदमी उसकी तरफ दौड़े-दौड़े आए। वह डर गया, पर हिम्मत करके फौरन उठा। शरीर पर कई जगह आई खरोंचों की परवाह किए बिना उसने तेजी से अपना हाथ अपनी जेब में डाला। पर वहाँ कुछ नहीं था।

बेटा, चोट तो नहीं लगी?एक ने उससे पूछा।

नहीं।उसने धीरे से कहा और स्कूटर को खड़ा करके स्टार्ट करने लगा।

बेटा, तेरा चाकू।दूसरे आदमी ने कुछ दूरी पर गिरा पड़ा उसका चाकू उठाकर उसे पकड़ाते हुए कहा।

उसने एक नज़र दोनों आदमियों की तरफ देखा और नज़रें झुका कर चाकू पकड़ लिया। फिर तेजी से स्कूटर स्टार्ट करके चला गया।

-0-

Saturday 11 September 2010

फोड़ा

जगरूप सिंह किवी

राम गोपाल का बेटा कंवल चार लड़कियों के बाद पैदा हुआ था। इस कारण ही वह सारे परिवार का लाड़ला था। बहुत लाड़-प्यार के कारण कंवल बुरी आदतों का शिकार हो गया। लेकिन इकलौता पुत्र होने के कारण राम गोपाल उसे कुछ न कहता।

एक दिन रामगोपाल की जाँघ पर फोड़ा निकल आया। राम गोपाल के लिए चलना भी कठिन हो गया।

डॉक्टर ने फोड़े को दबा कर मवाद निकाल देने की सलाह दी। लेकिन इससे होने वाले दर्द के बारे में सोचकर रामगोपाल की हिम्मत न होती। मगर जब पीड़ा असहनीय हो गई तो उसने डॉक्टर की सलाह मान ही ली। जहर के बाहर निकल जाने से उसे सुकून का अनुभव हुआ।

उस दिन पहली बार रामगोपाल ने अपने पुत्र को बुलाकर उसकी डाँट-डपट की।

- 0-

Thursday 2 September 2010

ग्रहदशा

गुरमीत हेयर

इसे अपना दाहिना हाथ लगाओ।
इस आटे के पेड़े को?”
जी हाँ।
किसलिए?”
पंडित जी बता गए हैं। आप पर ग्रहदशा चल रही है। हर रविवार आपके हाथ से गऊ को पेड़ा देना है।
और ले
क्या गया तुझसे पंडित?”
भला में क्या मूर्ख हूँ। केवल साढ़े बारह किलो अनाज दिया है
मैं अपनी कहानी के पात्र-चित्रण में मग्न था और बिना कुछ सोचे दाहिने हाथ से पेड़े को आशीर्वाद दे दिया।
थोड़ी देर बाद गली में सेहाय मर गई, हाय ढा ली!’ की चीखें सुनकर जब मैं बाहर निकला तो देखा, पत्नी कीचड़ में चित्त पड़ीहाय-बूकर रही थी।
उसे संभाल कर उठाते हुए मैंने पूछा, “क्या हो गया तुझे?”
वह मुझसे लिपटती हुई बोली, “हरामी मरखनी निकली। पेड़ा निगल कर निखसमी ने मुझे सींग दे माराहायमेरा जम्पर भी
-0-

Sunday 22 August 2010

बेवफा

केवल सिंह परवाना


आज उन्होंने फिर मिलने का इकरार किया था। शायद यह उनका आखिरी इकरार था।

इस इकरार से पहले, दो बार वायदा करके वे मिल नहीं सके थे। दो बार प्रेमिका बेवफा साबित हो चुकी थी। शायद उसे घर से निकलने का कोई बहाना न मिला हो। शायद घर वालों ने उसकी नज़रों में दीवानगी छलकती देख ली हो। पर इस बार प्रेमी की शर्त बड़ी सख्त थी। उसने पत्र में लिखा था‘मेरी जान…तुम दो बार वायदा तोड़ चुकी हो। इस बार मुआफ नहीं किया जायेगा। अगर तुम शाम के ठीक चार बजे रेलवे लाइन के नज़दीक हनुमान मंदिर में नहीं पहुँची तो मैं साढ़े चार बजे यहाँ से गुज़रने वाली गाड़ी के नीचे सिर दे दूँगा।’

पर बड़ी बदनसीबी। काश! वह समय पर वहाँ पहुँच सकती। एक दिन पहले ही उसने बहाने ढूँढ़ना शुरु कर दिया।‘सहेली से मिलने जाना है’, ‘मंदिर जाना है’, ‘डॉक्टर से दवा लेने जाना है’, पर उसकी जालिम माँ ने एक न सुनी।

ठीक साढ़े चार बजे गाड़ी चीखती हुई गुजर गई। पर हनुमान मंदिर के पास कोई दुर्घटना न हुई। प्रेमी का मन नफरत से भर गया। उसने सोचा‘मैं एक बेवफा लड़की के लिए जान क्यों दूँ? अगर वह मुझे प्यार करती होती तो अवश्य आती। मैं नहीं मरूँगा। मैं किसी और वफादार…।’

नफरत से भरा मन लेकर, वह मंदिर से बाहर आ गया। अपने घर लौटते उसके मन में आया, ‘क्यों न उस बेवफा के घर के आगे से गुजरा जाए। अगर वह फिरती हुई दिखे तो उसे गाली देकर ही जाए।’

जब वह उसके घर के आगे से गुजरा तो भीतर से चीखने-चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं। घर के भीतर जा रही एक पड़ोसन ने पूछने पर बताया, इनकी नौजवान लड़की ने खुदकुशी कर ली है।

उसके पाँव वहीं पत्थर हो गए।

-0-

Thursday 29 July 2010

सैलाब




गुरबचन
सिंह भुल्लर




बेटा, अगर अभी लौटना है तो बलबीर कौर को गाड़ी पर चढ़ा देना, नहीं तो हम में से किसी को काम छोड़कर जाना पड़ेगा।
लौटना तो अभी है, पर बलबीर कौर कौन?” मैंने पूछा।
अब भूल गया?…जिसको कहता था, पकड़ो रे, जट्टी भाग गईमौसी हँस पड़ी।
छोटे-छोटे थे। मेरी साथिन यह लड़की, अपनी बहन, मेरी मौसी की बहू के पास आई हुई थी। एक दिन खेलते हुए मैं जट्ट बन गया, वह जट्टी। पता नहीं वह किस बात पर रूठ गई और खेल बीच में छोड़ भाग गई। मुझे गुस्सा आया कि उसने खेल पूरा क्यों नहीं किया। मैं, ‘जाने नहीं दूँगा, पकड़ो रे, जट्टी भाग गईजट्टी भाग गई…’ कहता उसके पीछे भागा। हमारे घरों में काफी हँसी-मज़ाक हुआ।
मैंने कहा, “कौन सी बलबीर कौर, बीरां नहीं कहते।मौसी की बात के जवाब में मैं हँस पड़ा।
अब तो भई सुख से ब्याही गई, बलबीर कौर बन गई।
तेरी भाभी ने तो मुझ पर इतना ज़ोर डाला रिश्ते के लिए, पर तूने तो छोरे जमीन पर पाँव ही लगाया।
रस्मी हालचाल पूछ मैं, बीरां और उसका दस साल का भाई ताँगे में आगे बैठ गए।
रास्ते में ताँगा रुका। बीरां का भाई पिछली सवारियां नल से पानी पीने लगीं। ताँगे वाला घोड़े के लिए बाल्टी में पानी लेने चला गया। मैं बाहर शीशम के पेड़ देखने लगा। बीरां धीमी आवाज में बोली, “तब तो कहता था जट्टी को जाने नहीं देना। जट्टा, तू तो खुद ही भाग गयामैंने बहन के हाथ संदेशा भिजवाया था, बात तो सुन लेनी थीमैं तेरे पाँव धो-धोकर पीती
मुझे कोई जवाब सूझा। अगर बोलता, तो बोलता भी क्या? मैंने सूनी-सूनी नज़रों से देखा, उसकी आँखों के घेरे में सैलाब उतर आया था। उसके माथे पर थकावट और ज्यादा नज़र रही थी।
-0-

Wednesday 21 July 2010

विकास


जसबीर बेदर्द लंगेरी


माँ, मैं जाटों के घर लस्सी लेने गई थी। उनका बीरू कह रहा था कि हमारे देश ने बहुत तरक्की कर ली है। जो रेलगाड़ी हमारे गाँव से गुजरती है, वह अब कोयले से नहीं तेल से चलेगी। और यह भी कह रहा था कि बिजली से भी गाड़ियाँ चल पड़ीं। लड़की बिंदू ने यह खबर बड़ी खुश होकर अपनी माँ को सुनाई।

खाक तरक्की की है देश ने! जट्ट तो पहले ही खेत में घुसने नहीं देते, चार कोयले उठा कर चूल्हा गर्म कर लेते थे। अब पता नहीं कहाँ-कहाँ हाथ छिलवाने पड़ेंगे काँटों से।चूल्हे को गर्म रखने की फिक्र में ये बोल चिन्ती के मुँह से खुद-ब-खुद निकल गए।

-0-

Monday 12 July 2010

सेवक


गुरदीप सिंह पुरी

मैं फिरोज़पुर शहर के एक चौराहे के कोने में बनी मुसलमान फ़कीर की मज़ार पर माथा टेकने गया। सुना था कि यहाँ सच्चे मन से जो कोई भी आता है, उसकी सब मुरादें पूरी हो जाती हैं। मैंने पाँच रुपये का प्रसाद लिया और माथा टेककर सेवा कर रहे मिजावर को पकड़ा दिया। मैं प्रसाद लेकर अभी मुश्किल से पाँच-छः कदम ही बाहरी दरवाजे की ओर बढ़ा था कि मज़ार की सफाई कर रहे एक सेवक ने मुझे रोक लिया।
सरदार जी मेरी विनती सुनकर जाना।
बता भाई?”
मैं यहाँ पिछले आठ साल से सेवा कर रहा हूँ। मेरी घरवाली की दाईं छाती में कैंसर है। बहुत इलाज करवाया सरदार जी, पर आराम नहीं आया। अब डॉक्टर कहते हैं कि चंडीगढ ले जाओ। ले तो जाएँ सरदार जी, पर मेरे पास तो इस मज़ार पर माथा टेकने को पाँच पैसे भी नहीं हैं। आप ही कोई हीला-वसीला करो सरदार जीआपके बच्चे जीएं
वह बोलता गया। मैं मज़ार पर श्रद्धा से आने पूरी होने वाली मुरादों तथा आठ साल से सेवा कर रहे सेवक की भावनाओं उसके माँगने के ढंग के बीच के अंतर को टटोलता पता नहीं कब मज़ार का बाहर वाला दरवाजा पार कर गया था।
मुझे बाहर जाता देख वह मज़ार के फर्श पर फिर से झाड़ू लगाने लग गया।
-0-

Sunday 4 July 2010

ताँगेवाला


गुरमेल मडाहड़


सवारियों से भरा ताँगा चढ़ाई चढ़ रहा था। घोड़ा पूरा जोर लगाकर ताँगा खींच रहा था। ताँगे की बम्बी से ताँगेवाला नीचे उतरा । उसने सवारियों को भार आगे करके बैठने का इशारा किया। चाबुक की मार और मालिक की हल्लाशेरी से घोड़े ने अपना बाकी का जोर भी ताँगा खींचने में लगा दिया। ताँगेवाला ताँगे के साथ-साथ चलने लगा।

घोड़े की टाँग खराब है?घोड़े को लंगड़ाते देख एक सवारी ने आगे झुकते हुए पूछा।

हाँ।

फिर आराम करवाना था इसे।

डेढ़ माह के बाद आज ही जोता है।

सवारियाँ कम बैठा लिया कर।

कम कैसे बैठा लिया करूँ? आठ रुपए किलो के हिसाब से दो किलो चने। चार रुपए का दस किलो चारा। चार रुपए का दस किलो भूसा और पाँच रुपए का मसाला। उनतीस-तीस रुपए घोड़े को चराकर, दस रुपए मुझे भी घर का खर्च चलाने को चाहिएँ।

वह तो ठीक है, पर शास्त्रों में लिखा है कि जो व्यक्ति किसी को इस जन्म में तंग करता है, उसका बदला उसे अगले जन्म में देना पड़ता है।सवारी बोली।

पहले इस जन्म के बारे में सोच लें, अगले जन्म की अगले जन्म में देखी जाएगी।कहकर ताँगेवाले ने घोड़े को चाबुक मार दिया।

-0-