Monday 28 September 2009

पहुँचा हुआ फकीर


भूपिंदर सिंह

कमरा कह लो या छोटा घर। वही सास-ससुर, वहीं पर बड़ी ननद, वहीं पर छोटा देवर। और एक तरफ पति-पत्नी की दो चारपाइयाँ।
जब-तब बहू का जबड़ा भिंच जाता। पल भर में हाथ-पांव ठंडे होने लगते। होठों का रंग नीला पड़ जाता। हकीमों की दवा-बूटियां करके देखीं। डॉक्टरों के टीके लगवाए, पर कोई फायदा नहीं।
किसी ने एक फकीर के विषय में बताया। सात मील पर उसका डेरा था। पति ने साइकिल पर उसे आगे बिठाया और फिर पैडल दबा दिए। रास्ते में एक छोटा-सा बाग आया। डंडा चुभने का बहाना कर पत्नी उतर गई। दोनों बाग में बैठ गए, जी भर कर बातें हुईं। फिर दो आत्माएं एक हो गईं। कोई रोकने वाला नहीं था। जो मन में आया किया।
“आज की यात्रा से फूल की तरह हल्की हो गई हूँ, जैसे कोई रोग ही नहीं रहा हो।” डेरे पर पहुँच कर उसने कहा।
“तो हर बुधवार बीस चौकियाँ भरो, बेटी। दवा-दारू की ज़रूरत नहीं। महाराज भली करेगा!”
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Monday 21 September 2009

लोक लाज


बिक्रमजीत ‘नूर’


सुरजीत सिंह का अपनी पत्नी से किसी बात पर झगड़ा हो गया था। ‘तू-तू, मैं-मैं’ हुई थी। पत्नी ने ललकार कर कह दिया, पका लो रोटियाँ आज आप ही, मुझसे नहीं होता तुम्हारा ये रोज-रोज का स्यापा!

उसे एतराज था कि वह तो दिन भर रसोई में ही उलझी रहती है और पतिदेव दोनों बच्चों के साथ आराम से बैठे टी.वी. देखते रहते हैं।

सुरजीत सिंह भी आज अपनी आई पर आ गया था। उसने भी पूरे गुस्से में आकर कह दिया था, ठीक है, ज्यादा बोलने की ज़रूरत नहीं है, हमें आती है रोटी पकानी।

और वास्तव में ही दोनों बाप-बेटे रसोई में जा पहुँचे थे। पत्नी साहिबा चादर ओढ़ कर लेट गई थी। लड़की अपने ही किसी कार्य में मग्न थी।

बाहर वाला दरवाजा खुला रह गया था, इसलिए सुरजीत सिंह को पता ही न चला कि कब उसका एक घनिष्ठ मित्र रसोईघर के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ।

क्या बात आज खुद ही हाथ जला रहे हो? भाभी जी से कहीं झगड़ा तो नहीं हो गया?

सुरजीत सिंह चौंक गया था, जैसे कोई अनहोनी हो गई हो। ‘मायके गई है, यार।’ वह अभी यह संक्षिप्त वाक्य बोल कर अपना स्पष्टीकरण देने ही वाला था कि भीतर से पत्नी ने सिर से चादर उतार यह देख लिया था कि कौन आया है। अतः सुरजीत ने कहा, बीमार है आज थोड़ी, अभी दवा लेकर आए हैं। डाक्टर ने आराम करने को कहा है।

लड़की पता नहीं कब आँख बचा कर माँ का सिर दबाने लग गई थी और पत्नी तो ऊँची-ऊँची कराहने भी लगी थी।

ठीक है भई फिर तो…, दोस्त ने कहा और जाने लगा।

बैठ यार!

नहीं, फिर आऊँगा। मित्र बाहर की ओर चल दिया।

सुरजीत सिंह ने बेटे से यह तो ऊँची आवाज में कहा, जा अंकल को दरवाजे तक छोड़ आ।लेकिन यह बात कान में ही कही कि आते वक्त दरवाजा अच्छी तरह से बंद कर आना।

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Monday 7 September 2009

नज़र और नज़र



हरभजन खेमकरनी

बड़ी कठिनाई से मीनाक्षी रेल के आरक्षित सीट वाले डिब्बे में चढ़ तो गई, लेकिन सीट मिलना तो दूर, खड़े होने के लिए भी जगह नहीं थी। राजधानी में हो रही राजनीतिक रैली में भाग लेने जा रही बे-टिकट भीड़ ने गाड़ी के आरक्षित डिब्बों पर भी कब्जा कर रखा था। छोटे बच्चे के साथ रात का सफर सुखद बनाने के लिए ही तो मीनाक्षी ने सीट आरक्षित करवाई थी। मिन्नतें करने पर भी लोग उसकी सीट खाली करने को तैयार न थे। न ही किसी को भीड़ से घबराई, गोद वाली बच्ची के रोने पर तरस आया। यह सोचकर कि अकसर मर्दाना सवारियां बच्चे पर तरस खाकर सीट छोड़ देती हैं, उसने बैठे यात्रियों के चेहरों को प्रश्नात्मक नज़र से देखा। लेकिन लंबे सफर के कारण कोई भी यात्री सीट छोड़ने को तैयार न था।
अंततः एक स्त्री ने अपने पाँवों में रखी गठरी पर बैठते हुए कहा,“ आ बेटी, यहाँ बैठकर बच्चे को दूध पिला दे। देख कैसे रो-रो कर बेहाल हो रहा है।”
सीट पर बैठकर मीनाक्षी ने दूधवाली शीशी निकालने के लिए पर्स में हाथ डाला तो परेशान हो उठी। जल्दी में शीशी घर पर ही रह गई थी। सीट की पीठ की तरफ मुँह करने जितनी जगह भी नहीं थी। अब बच्चे को अपना दूध कैसे पिलाए? उसे लग रहा था कि अधिकांश नज़रें उसी पर टिकी हुई हैं। उस की दुविधा को भाँपते हुए पास बैठी औरत ने जरा ऊँची आवाज में कहा,“ बेटी! कपड़े का पर्दा कर बच्चे को दूध पिला दे, ये लोग भी माँ का दूध पीकर ही बड़े हुए हैं।”
उसकी आवाज सुनते ही सारी नज़रें झुक गईं।
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