Friday 28 August 2009

माँ








डॉ श्याम सुन्दर दीप्ति


“ मम्मी, मम्मी! मेरा शार्पनर कहाँ है?”
“ मौम! कुछ खाने को बना दो।”
“ मौम…”
बेटा बार-बार कुछ मांग रहा था।
“ तू आवाज देने से न हटना। तू एक ही बार नहीं मांग सकता सब कुछ। बता, क्या मौम-मौम लगा रखी है?”
वह भी परेशान थी, अपने सर्वाइकल के दर्द से और ऊपर से नौकरानी भी देर से आई थी। उसकी प्रतीक्षा कर वहआधा काम स्वयं ही निपटा चुकी थी।
“ कभी खुद भी उठना चाहिए।” उसने बेटे को जूस का गिलास देते हुए कहा।
राजेश अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था। वह उठ कर बेटे के कमरे में आ गया। वैसे माँ-बेटे की बातें वह वहाँ बैठा सुन ही रहा था।
कुछ देर बाद बेटा उठकर बाहर माँ के पास जाकर बोला, “ मम्मी, पापा कहते हैं…”
“ अब उन्हें क्या चाहिए? उन्हें कह रुकें पाँच मिनट, एक ही बार फ्री होकर चाय बनाऊँगी।”
“ नहीं मम्मी! पापा कहते हैं…माँ बनना आसान नहीं होता।”
“ अच्छा! अब तुम्हें पढ़ाने आ गए। क्यों? पिता बनना आसान होता है? दूसरे की तारीफ करो और अपना काम निकालो। ये नहीं कि काम में हाथ बंटा दें।” उस ने उसी रौ में बात को जारी रखा और उसकी ओर मुँह करके बोली, “ पूछना था न, माँ बनना क्यों कठिन है?”
“ पूछा था मम्मी!”
“ अच्छा तो फिर क्या जवाब मिला?”
“ पापा कहते, तुझे जन्म देने के लिए तेरी माँ का बड़ा आपरेशन हुआ,” बच्चे ने आँखें तथा हाथ फैलाकर कहा, “ मम्मी के पेट को चीरा देना पड़ा। मम्मी! पापा कहते, पता नहीं कितने टाँके लगे। बड़ी तकलीफ हुई…।”
बच्चे की बात सुन, माँ ने उसे कसकर सीने से लगा लिया।
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Friday 14 August 2009

इज्जत


अवतार सिंह बिलिंग


दलित लड़के की लंबरदार की कालेज पढ़ती लड़की को भगा ले जाने की हिम्मत कैसे हुई?गाँव में हाहाकार मच गई। गाँव के बड़े आदमी की इज्जत का सवाल था।

बड़ी भाग-दौड़ के पश्चात लड़की बरामद कर ली गई। तब पंचायत की बड़ी सभा की गई।

गोली मारो साले को, चौराहे में खड़ा करके!

कुत्तों से पड़वा दो इस कंजर को!

मुँह काला करो, इस कपूत का…और जलूस निकालो इसका, गधे पर बैठा कर।

चारों तरफ से थू-थू, छि:-छि: की आवाज़ें आ रही थीं।

तेरी दाढ़ी क्यों न जला दी जाए, कंजर लंबड़ा?…याद नहीं तुझे?…जब खेत में गई एक विधवा माँ को तू बाँह से पकड़ कर मक्का में ले गया था।

चार व्यक्तियों की भुजाओं में जकड़े दाँत पीसते लड़के ने लंबरदार के मुख पर थूक दिया।

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Tuesday 4 August 2009

मां


गुरदीप सिंह पुरी

उस दिन मां के साथ जब मामूली–सी बात पर उसका झगड़ा हो गया तो वह बिना नाश्ता किए ही ड्यूटी पर जाने के लिए बस–अड्डे की ओर चल पड़ा । घर से निकलते वक़्त मां के यह बोल उसे ख़ंजर की तरह चुभे, “ तेरी आस में तो मैने तेरे अड़ियल और नशेबाज बाप के साथ अपनी सारी उम्र गाल दी, कि चलो बेटा बना रहे, और दुष्ट तू भी…।” मां के शेष बोल आंसूओं में भीग कर रह गए । वह जा़र–ज़ार रोने लगी।
घर से बस–अड्डे तक का सफर तय करते हुए उसे बार–बार यही ख्याल आता रहा कि वह मां के कहे बोल नहीं बल्कि मां द्वारा सृजित एक–एक अरमान को पांवों तले रौंदता चला जा रहा है । पर वह चुपचाप चलता रहा, चलता रहा।
बस–अड्डे पर पहुंचकर जब वह अपनी बस की ओर बढ़ा तो देखा, मां हाथ में रोटी वाला डिब्बा लिए उसकी बस के आगे खड़ी थी। बेटे को देखते ही मां ने रोटी वाला डिब्बा उसकी ओर बढ़ा दिया। मां के खामोश होंठ जैसे आंखों पर लग गए हों । एकाएक अनेक आंसू मां की पलकों का साथ छोड़ गए । मां को ऐसे रोते देख कर उससे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया गया और अगले ही पल वह मां के चरणों में था ।
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