Monday 28 December 2009

भूकंप



डा. कर्मजीत सिंह नडाला

बेटा सोलह वर्ष का हुआ तो वह उसे भी अपने साथ ले जाने लग पड़ा।
‘कैसे हाथ-पाँव टेढ़े-मेढ़े कर चौक के कोने में बैठना है, आदमी देख कैसे ढ़ीला-सा मुँह बनाना है। लोगों को बुद्धू बनाने के लिए तरस का पात्र बनकर कैसे अपनी ओर आकर्षित करना है। ऐसे बन जाओ कि सामने से गुजर रहे आदमी का दिल पिघल जाए और सिक्का उछलकर तुम्हारे कटोरे में आ गिरे।’
वह सीखता रहा और जैसा पिता कहता, वैसा बनने की कोशिश भी करता रहा। फिर एक दिन पिता ने पुत्र से कहा, जा अब तू खुद ही भीख माँगा कर।
पुत्र शाम को घर लौटा। आते ही उसने अपनी जेब से रुपये निकाल कर पिता की ओर बढ़ाए, ले बापू, मेरी पहली कमाई…।
हैं! कंजर पहले दिन ही सौ रुपये! इतने तो कभी मैं आज तक नहीं कमा कर ला सका, तुझे कहाँ से मिल गए?
बस ऐसे ही बापू, मैं तुझसे आगे निकल गया।
अरे कहीं किसी की जेब तो नहीं काट ली?
नहीं, बिलकुल नहीं।
अरे आजकल तो लोग बड़ी फटकार लगाकर भी आठ आने-रुपया बड़ी मुश्किल से देते हैं…तुझ पर किस देवता की मेहर हो गई?
बापू, अगर ढंग से माँगो तो लोग आप ही खुश हो कर पैसे दे देते हैं।
तू कौन से नए ढंग की बात करता है, कंजर! पहेलियाँ न बुझा। पुलिस की मार खुद भी खाएगा और हमें भी मरवाएगा। बेटा, अगर भीख माँग कर गुजारा हो जाए तो चोरी-चकारी की क्या जरूरत है। पल भर की आँखों की शर्म है…हमारे पुरखे भी यही कुछ करते रहे हैं, हमें भी यही करना है। हमारी नसों में भिखारियों वाला खानदानी खून है…हमारा तो यही रोजगार है, यही कारोबार है। ये खानदानी रिवायतें कभी बदली हैं? तू आदमी बन जा…।
बापू, आदमी बन गया हूँ, तभी कह रहा हूँ। मैने पुरानी रिवायतें तोड़ दी हैं। मैं आज राज मिस्त्री के साथ दिहाड़ी कर के आया हूँ। एक कालोनी में किसी का मकान बन रहा है। उन्होंने शाम को मुझे सौ रुपये दिए। सरदार कह रहा था, रोज आ जाया कर, सौ रुपये मिल जाया करेंगे…।
पिता हैरान हुआ कभी बेटे की ओर देखता, कभी रुपयों की ओर। यह लड़का कैसी बातें कर रहा है! आज उसकी खानदानी रियासत में भूकंप आ गया था, जिसने सब कुछ उलट-पलट दिया था।
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Monday 21 December 2009

दायित्व



डॉ. बलदेव सिंह खहिरा

“देख बापू! मुझे आए महीना भर हो गया। सभी रिश्तेदारों से पूछ लिया है, कोई भी आप दोनों को रखने के लिए तैयार नहीं। इस वृद्धावस्था में मैं आपको अकेले इस कोठी में नहीं छोड़ सकता। आप अपना लुक आफ्टर कर ही नहीं सकते।”
माता-पिता को खामोश देखकर वह फिर बोला, “वैसे भी अगले सप्ताह इस कोठी का कब्जा देना है। मैंने सारा बंदोबस्त कर लिया है। ओल्ड एज होम वाले डेढ लाख रुपये लेते हैं, फिर सारी उम्र की देखभाल उनके जिम्मे।”
“परमिंदर! हमने अपना घर छोड़ कर वृद्ध-आश्रम में नहीं जाना। तेरी मां तो बिलकुल नहीं मानती। तू जा अमरीका। हमें अपने हाल पर छोड़ दे, हमारा वाहिगुरु है।”
“माँ! बापू! आप बच्चों की तरह जिद्द क्यों कर रहे हो? कोठी तो बिक चुकी है। अपने मन को समझाओ।” कहकर परमिन्दर अपने कमरे में चला गया।
उसी रात बापू अकाल चलाना(स्वर्ग सिधारना) कर गया।
तीन दिन बाद बापू के ‘फूल’ कीरतपुर साहिब प्रवाह करके लौटे तो रिश्तेदारों ने परमिंदर को बताया, “माँ जी तो किसी को पहचानते ही नहीं, आंगन में बैठे कोठी की तरफ ही देखते रहते हैं। शायद वे पागलपन का अवस्था में है।”
परमिन्दर के मुँह से निकला, “तो फिर पागलखाने में भर्ती करवा देते हैं। आपको नहीं पता मेरा एक-एक दिन का कितना नुकसान हो रहा है। पीछे अपने परिवार का कितना बड़ा दायित्व है मेरे सिर पर।”
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Monday 14 December 2009

सूरज


सुधीर कुमार सुधीर


कच्चे मकानों के बीच में बनी छप्पर वाली अंधेरी कोठरी में बैठा रुलदू शराब पी रहा था। उसकी घरवाली चूल्हे के पास बैठी धुआं फांक रही थी। सात साल का बेटा सूरज माँ के पास बैठा आटे की चिड़िया बना रहा था।

रुलदू ने भीतर से आवाज दी, रोटी-पानी तैयार किया या नहीं, जरा जल्दी कर।

सूरज की माँ बुड़बुड़ करने लगी, आज कई दिन बाद दिहाड़ी लगी थी, चार पैसे घर लाने की जगह, यह जहर पीने बैठ गया। सब्जी कैसे बनेगी?

रुलदू की बोतल खाली होने को थी। सूरज उस के पास जाकर खड़ा हो गया और बोला, बापू, जल्दी बोतल खाली कर।

बोतल तूने क्या करनी है रे? रुलदू क्रोधित होते हुए बोला।

सब्जी में डालने के लिए नमक नहीं है, दुकान पर बोतल देकर नमक लाना है।

सूरज के इन शब्दों को सुनकर रुलदू की आँखों के आगे अंधेरा छा गया।

रुलदू की घरवाली घर में रोशनी महसूस करने लगी।

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Tuesday 24 November 2009

नई पगडंडी



परमजीत थेड़ी

गुरमुख सिंह व उसकी पत्नी विकासशील विचारों के थे। विवाह के बारह साल बाद भी उनके कोई औलाद नहीं हुई थी। उन की इच्छा थी कि परमात्मा उन्हें एक बच्चा दे दे, जो उनके बुढ़ापे का सहारा बने। वह लड़के-लड़की में कोई फर्क नहीं समझते थे।
और एक दिन उनके दरवाजे के आगे लोगों ने नीम बंधी हुई देखी। नीम बंधा देख, सभी के दिल खुशी से भर गए कि चलो बारह वर्ष बाद बेटा हो जाने से उनकी जड़ लग गई।
सायं गाँव के दस-बीस स्त्री-पुरुष मिलकर बधाई देने के लिए उनके घर गए।
“बधाई! भई गुरमुख सिंह।”
“आपको भी बधाई! रब्ब आपको भी बधाए।”
“भई, बेटा तो रब्ब सभी को दे। बेटों के बिना तो जग में नाम ही नहीं रहता।”
“पर मेरे घर तो बेटी पैदा हुई है, मेरे लिए तो यही बेटा है।”
“नीम तो खुशी प्रकट करने के लिए बाँधते हैं?”
“मुझे भी बेटी पैदा होने की बेटे से ज्यादा खुशी है। आजकल लड़के-लड़की में फर्क ही कहाँ है।”
अब गाँव वालों के चेहरे उदास हो गए। धीरे-धीरे बाहर आ रहे लोग कह रहे थे, “देख लो, बेवकूफों की कोई कमी नहीं, पैदा हुई लड़की और बाँध दिया नीम।”
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Saturday 10 October 2009

एक राह और


नूर संतोखपुरी

वह मेरे आगे-आगे चली जा रही थी। गले में पड़ी हलके लाल रंग की चुनरी के दोनों छोर मेरी ओर देख कर हंस रहे थे। बालों की एक ही चोटी इस तरह गुंथी हुई थी, जैसे किसी ने बलखाती बेल कोरे सफेद कागज पर बड़ी रीझ से बनाई हो। उसके कानों की सुनहली बालियां हिलती हुई मंद-मंद मुस्करा रही थीं। उसकी चाल ऐसी थी, जैसे कोई किसी अजीब खुशबू से नहाया हुआ फूलों की घाटी में से चला जा रहा हो। मैं उसके पीछे-पीछे चलता अपने ही ख्यालों में डुबकियाँ लगाने लग पड़ा था।

वह एकदम रुक गई। मेरे कदम भी ठहर गए। शादी वालों ने चाँदनी-कनात लगा कर राह बंद किया हुआ था। दाहिनी ओर आलुओं की हरी बेलें इधर-उधर देख रही थीं। बाईं ओर खिलने की उम्र को पहुँची हरी कचनार गेहूँ के पौधे एक दूसरे से हंसी-ठट्ठा कर रहे थे। इन फसलों को कुचलकर शायद वह जाना नहीं चाहती थी। पीछे मुँह घुमा कर रोशन चेहरे वाली उस प्रौढ़ा ने मेरी ओर देखा तथा बोली, बेटा, आगे तो राह बंद है। अब क्या करें?

……मुझसे कुछ न बोला गया। मैं चुप रहा।

वह पीछे मुड़ी और साथ ही मुझे भी मुड़ने का इशारा करती हुई बोली, एक राह और भी है। मुझे पता है उस राह का। उधर से होकर हम सड़क पर पहुँच सकते हैं। तुमने भी उधर ही जाना है?

हाँ माँ जी।मैने कहा।

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Monday 28 September 2009

पहुँचा हुआ फकीर


भूपिंदर सिंह

कमरा कह लो या छोटा घर। वही सास-ससुर, वहीं पर बड़ी ननद, वहीं पर छोटा देवर। और एक तरफ पति-पत्नी की दो चारपाइयाँ।
जब-तब बहू का जबड़ा भिंच जाता। पल भर में हाथ-पांव ठंडे होने लगते। होठों का रंग नीला पड़ जाता। हकीमों की दवा-बूटियां करके देखीं। डॉक्टरों के टीके लगवाए, पर कोई फायदा नहीं।
किसी ने एक फकीर के विषय में बताया। सात मील पर उसका डेरा था। पति ने साइकिल पर उसे आगे बिठाया और फिर पैडल दबा दिए। रास्ते में एक छोटा-सा बाग आया। डंडा चुभने का बहाना कर पत्नी उतर गई। दोनों बाग में बैठ गए, जी भर कर बातें हुईं। फिर दो आत्माएं एक हो गईं। कोई रोकने वाला नहीं था। जो मन में आया किया।
“आज की यात्रा से फूल की तरह हल्की हो गई हूँ, जैसे कोई रोग ही नहीं रहा हो।” डेरे पर पहुँच कर उसने कहा।
“तो हर बुधवार बीस चौकियाँ भरो, बेटी। दवा-दारू की ज़रूरत नहीं। महाराज भली करेगा!”
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Monday 21 September 2009

लोक लाज


बिक्रमजीत ‘नूर’


सुरजीत सिंह का अपनी पत्नी से किसी बात पर झगड़ा हो गया था। ‘तू-तू, मैं-मैं’ हुई थी। पत्नी ने ललकार कर कह दिया, पका लो रोटियाँ आज आप ही, मुझसे नहीं होता तुम्हारा ये रोज-रोज का स्यापा!

उसे एतराज था कि वह तो दिन भर रसोई में ही उलझी रहती है और पतिदेव दोनों बच्चों के साथ आराम से बैठे टी.वी. देखते रहते हैं।

सुरजीत सिंह भी आज अपनी आई पर आ गया था। उसने भी पूरे गुस्से में आकर कह दिया था, ठीक है, ज्यादा बोलने की ज़रूरत नहीं है, हमें आती है रोटी पकानी।

और वास्तव में ही दोनों बाप-बेटे रसोई में जा पहुँचे थे। पत्नी साहिबा चादर ओढ़ कर लेट गई थी। लड़की अपने ही किसी कार्य में मग्न थी।

बाहर वाला दरवाजा खुला रह गया था, इसलिए सुरजीत सिंह को पता ही न चला कि कब उसका एक घनिष्ठ मित्र रसोईघर के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ।

क्या बात आज खुद ही हाथ जला रहे हो? भाभी जी से कहीं झगड़ा तो नहीं हो गया?

सुरजीत सिंह चौंक गया था, जैसे कोई अनहोनी हो गई हो। ‘मायके गई है, यार।’ वह अभी यह संक्षिप्त वाक्य बोल कर अपना स्पष्टीकरण देने ही वाला था कि भीतर से पत्नी ने सिर से चादर उतार यह देख लिया था कि कौन आया है। अतः सुरजीत ने कहा, बीमार है आज थोड़ी, अभी दवा लेकर आए हैं। डाक्टर ने आराम करने को कहा है।

लड़की पता नहीं कब आँख बचा कर माँ का सिर दबाने लग गई थी और पत्नी तो ऊँची-ऊँची कराहने भी लगी थी।

ठीक है भई फिर तो…, दोस्त ने कहा और जाने लगा।

बैठ यार!

नहीं, फिर आऊँगा। मित्र बाहर की ओर चल दिया।

सुरजीत सिंह ने बेटे से यह तो ऊँची आवाज में कहा, जा अंकल को दरवाजे तक छोड़ आ।लेकिन यह बात कान में ही कही कि आते वक्त दरवाजा अच्छी तरह से बंद कर आना।

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Monday 7 September 2009

नज़र और नज़र



हरभजन खेमकरनी

बड़ी कठिनाई से मीनाक्षी रेल के आरक्षित सीट वाले डिब्बे में चढ़ तो गई, लेकिन सीट मिलना तो दूर, खड़े होने के लिए भी जगह नहीं थी। राजधानी में हो रही राजनीतिक रैली में भाग लेने जा रही बे-टिकट भीड़ ने गाड़ी के आरक्षित डिब्बों पर भी कब्जा कर रखा था। छोटे बच्चे के साथ रात का सफर सुखद बनाने के लिए ही तो मीनाक्षी ने सीट आरक्षित करवाई थी। मिन्नतें करने पर भी लोग उसकी सीट खाली करने को तैयार न थे। न ही किसी को भीड़ से घबराई, गोद वाली बच्ची के रोने पर तरस आया। यह सोचकर कि अकसर मर्दाना सवारियां बच्चे पर तरस खाकर सीट छोड़ देती हैं, उसने बैठे यात्रियों के चेहरों को प्रश्नात्मक नज़र से देखा। लेकिन लंबे सफर के कारण कोई भी यात्री सीट छोड़ने को तैयार न था।
अंततः एक स्त्री ने अपने पाँवों में रखी गठरी पर बैठते हुए कहा,“ आ बेटी, यहाँ बैठकर बच्चे को दूध पिला दे। देख कैसे रो-रो कर बेहाल हो रहा है।”
सीट पर बैठकर मीनाक्षी ने दूधवाली शीशी निकालने के लिए पर्स में हाथ डाला तो परेशान हो उठी। जल्दी में शीशी घर पर ही रह गई थी। सीट की पीठ की तरफ मुँह करने जितनी जगह भी नहीं थी। अब बच्चे को अपना दूध कैसे पिलाए? उसे लग रहा था कि अधिकांश नज़रें उसी पर टिकी हुई हैं। उस की दुविधा को भाँपते हुए पास बैठी औरत ने जरा ऊँची आवाज में कहा,“ बेटी! कपड़े का पर्दा कर बच्चे को दूध पिला दे, ये लोग भी माँ का दूध पीकर ही बड़े हुए हैं।”
उसकी आवाज सुनते ही सारी नज़रें झुक गईं।
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Friday 28 August 2009

माँ








डॉ श्याम सुन्दर दीप्ति


“ मम्मी, मम्मी! मेरा शार्पनर कहाँ है?”
“ मौम! कुछ खाने को बना दो।”
“ मौम…”
बेटा बार-बार कुछ मांग रहा था।
“ तू आवाज देने से न हटना। तू एक ही बार नहीं मांग सकता सब कुछ। बता, क्या मौम-मौम लगा रखी है?”
वह भी परेशान थी, अपने सर्वाइकल के दर्द से और ऊपर से नौकरानी भी देर से आई थी। उसकी प्रतीक्षा कर वहआधा काम स्वयं ही निपटा चुकी थी।
“ कभी खुद भी उठना चाहिए।” उसने बेटे को जूस का गिलास देते हुए कहा।
राजेश अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था। वह उठ कर बेटे के कमरे में आ गया। वैसे माँ-बेटे की बातें वह वहाँ बैठा सुन ही रहा था।
कुछ देर बाद बेटा उठकर बाहर माँ के पास जाकर बोला, “ मम्मी, पापा कहते हैं…”
“ अब उन्हें क्या चाहिए? उन्हें कह रुकें पाँच मिनट, एक ही बार फ्री होकर चाय बनाऊँगी।”
“ नहीं मम्मी! पापा कहते हैं…माँ बनना आसान नहीं होता।”
“ अच्छा! अब तुम्हें पढ़ाने आ गए। क्यों? पिता बनना आसान होता है? दूसरे की तारीफ करो और अपना काम निकालो। ये नहीं कि काम में हाथ बंटा दें।” उस ने उसी रौ में बात को जारी रखा और उसकी ओर मुँह करके बोली, “ पूछना था न, माँ बनना क्यों कठिन है?”
“ पूछा था मम्मी!”
“ अच्छा तो फिर क्या जवाब मिला?”
“ पापा कहते, तुझे जन्म देने के लिए तेरी माँ का बड़ा आपरेशन हुआ,” बच्चे ने आँखें तथा हाथ फैलाकर कहा, “ मम्मी के पेट को चीरा देना पड़ा। मम्मी! पापा कहते, पता नहीं कितने टाँके लगे। बड़ी तकलीफ हुई…।”
बच्चे की बात सुन, माँ ने उसे कसकर सीने से लगा लिया।
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Friday 14 August 2009

इज्जत


अवतार सिंह बिलिंग


दलित लड़के की लंबरदार की कालेज पढ़ती लड़की को भगा ले जाने की हिम्मत कैसे हुई?गाँव में हाहाकार मच गई। गाँव के बड़े आदमी की इज्जत का सवाल था।

बड़ी भाग-दौड़ के पश्चात लड़की बरामद कर ली गई। तब पंचायत की बड़ी सभा की गई।

गोली मारो साले को, चौराहे में खड़ा करके!

कुत्तों से पड़वा दो इस कंजर को!

मुँह काला करो, इस कपूत का…और जलूस निकालो इसका, गधे पर बैठा कर।

चारों तरफ से थू-थू, छि:-छि: की आवाज़ें आ रही थीं।

तेरी दाढ़ी क्यों न जला दी जाए, कंजर लंबड़ा?…याद नहीं तुझे?…जब खेत में गई एक विधवा माँ को तू बाँह से पकड़ कर मक्का में ले गया था।

चार व्यक्तियों की भुजाओं में जकड़े दाँत पीसते लड़के ने लंबरदार के मुख पर थूक दिया।

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Tuesday 4 August 2009

मां


गुरदीप सिंह पुरी

उस दिन मां के साथ जब मामूली–सी बात पर उसका झगड़ा हो गया तो वह बिना नाश्ता किए ही ड्यूटी पर जाने के लिए बस–अड्डे की ओर चल पड़ा । घर से निकलते वक़्त मां के यह बोल उसे ख़ंजर की तरह चुभे, “ तेरी आस में तो मैने तेरे अड़ियल और नशेबाज बाप के साथ अपनी सारी उम्र गाल दी, कि चलो बेटा बना रहे, और दुष्ट तू भी…।” मां के शेष बोल आंसूओं में भीग कर रह गए । वह जा़र–ज़ार रोने लगी।
घर से बस–अड्डे तक का सफर तय करते हुए उसे बार–बार यही ख्याल आता रहा कि वह मां के कहे बोल नहीं बल्कि मां द्वारा सृजित एक–एक अरमान को पांवों तले रौंदता चला जा रहा है । पर वह चुपचाप चलता रहा, चलता रहा।
बस–अड्डे पर पहुंचकर जब वह अपनी बस की ओर बढ़ा तो देखा, मां हाथ में रोटी वाला डिब्बा लिए उसकी बस के आगे खड़ी थी। बेटे को देखते ही मां ने रोटी वाला डिब्बा उसकी ओर बढ़ा दिया। मां के खामोश होंठ जैसे आंखों पर लग गए हों । एकाएक अनेक आंसू मां की पलकों का साथ छोड़ गए । मां को ऐसे रोते देख कर उससे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया गया और अगले ही पल वह मां के चरणों में था ।
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Saturday 25 July 2009

कड़वा सच


दर्शन जोगा


दुलारी, अब नहीं मुझसे बसों में चढ़ा-उतरा जाता। ड्यूटी पर जा कर बैठना भी मुश्किल लगता है। वैसे डाक्टर ने भी राय दी है– भई, आराम कर, ज्यादा चलना फिरना नहीं। बेआरामी से हालत खराब होने का डर है।

रब्ब ही बैरी हुआ फिरता है। ’गर लड़का कहीं छोटे-मोटे धंधे में अटक जाता तो किसी न किसी तरह टैम निकालते रहते।शिवलाल की बात सुन कर पत्नी का दुख बाहर आने लगा।

मैंने तो रिटायरमैंट के कागज भेज देने हैं, बहुत कर ली नौकरी। अब जब सेहत ही इजाजत नहीं देती…।शिवलाल ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा।

वह तो ठीक है, पर…पत्नी ने भीतर का फिक्र ज़ाहिर करते हुए कहा।

पर-पुर का क्या करें…? मैं तो खुद ही नहीं चाहता था।

मैं तो कहती हूँ कि धीरे-धीरे यूँ ही जाते रहो, तीन साल पड़े हैं रिटायरमैंट में। क्या पता अभी क्या बनना है। रब्ब ने अगर हम पर पहाड़ गिरा ही दिया, बाद में नौकरी तो मिल जाएगी लड़के को, बेकार फिरता है…।

यह सुनते ही शिवलाल के चेहरे पर पीलापन छा गया।

पत्नी की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे।

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Tuesday 14 July 2009

खून के व्यापारी


अमरजीत अकोई
“डाक्टर साब, यह लो पर्ची और दवाइयाँ दे दो।” फटेहाल रिक्शा-चालक ने कैमिस्ट की दुकान पर पर्ची पकड़ाते हुए कहा।
“भई पैसे दो, अब ऐसे दवाई नहीं मिलती।”
“तुम दवाई दो जल्दी से, मैं अभी आकर खून की बोतल दे देता हूँ।”
“न भई न, खून का धंधा तो बंद कर दिया। सरकार कहती है, बाहर से लिए खून से बीमारियाँ होती हैं। इसलिए अब जल्दी से कोई खून नहीं लेता। और अब ये क्लबों वाले लड़के बहुत खून दान कर रहे हैं।” कैमिस्ट ने उसे समझाते हुए कहा।
“डाक्टर साब, मुझे कोई बीमारी नहीं है। सख्त मेहनत से बनाया हुआ खून है। ज्यादा करते हो तो पहले मेरा खून टैस्ट कर लो।”
“न भई, साफ बात है, हमने तो यह धंधा बिल्कुल ही बंद कर दिया है। पैसे निकालो, दवाई ले लो।”
“डाक्टर साब, अगर मेरे पास पैसे होते तो इतना क्यों कहता। मैं आपका पैसा-पैसा चुका दूँगा। मेरा बेटा दवाई के बिना मर जाएगा।” उसने मिन्नत की।
“न भई, यहाँ तो रोज तुम्हारे जैसे ही आते हैं।”
“अच्छा जनाब, आपकी मर्जी!” वह टाँगें घसीटता अस्पताल की ओर चला गया जैसे सख्त बीमार हो।
“और फिर कैसी चल रही है दुकानदारी?” पास ही बैठे कैमिस्ट के जीजा ने पूछा।
“यह जब से खून में एड्स के कणों का हल्ला मचा है, हमारा तो धंधा ही चौपट हो गया। इस जैसे से खून की बोतल कढ़वा लेते थे, आगे बेच कर सीधा डेढ़ सौ बच जाता था। अगर कोई खून बदले दवाइयाँ ले जाता तो दवाइयों से भी कमाई होती। और अगर कोई मोटी मर्गी फंस जाती तो पाँच सौ भी बच जाते।” कैमिस्ट ने अपने जीजा के सामने सारा भेद खोल दिया।
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Thursday 9 July 2009

पुण्य



अणमेश्वर कौर

कब आया विलायत से, भई टहल सिंह?

हो गए कोई पंद्रह-बीस दिन, अपना ब्याह करवाने आया था। अब तो कल सुबह की फ्लाइट से जाना है।

वाह भई वाह! टहल सिंह, जहाँ तक मुझे याद है, यह तेरी तीसरी शादी है,बात को जारी रखते हुए सरवण पूछने लगा, क्या बात है, तुम जल्दी-जल्दी शादी किए जा रहे हो, यह तो बताओ कि पहली दो का क्या हुआ?

होना क्या था, पहली ब्याह के बाद इंडिया में तो ठीक-ठाक रही, पर जब विलायत गई तो तलाक हो गया। फिर दूसरी बार गाँव की गरीब लड़की से ब्याह किया। उसके भी गोरों की धरती पर पाँव पड़ते ही पंख लग गए। मेरे से झगड़ पड़ी…कहे, तू भी मेरे साथ काम कर घर का…रोज लड़ती थी ससुरी…बस कुछ महीने बाद ही हो गया तलाक। रहती हैं दोनों अपने-अपने कौंसल के फ्लैटों में।

लेकिन यह बात तो बुरी है, टहल! माँ-बाप पता नहीं कितनी रीझों से पालतें-पोसतें हैं और विलायत में जाकर कुछ का कुछ हो जाता है।

टहल सिंह ने दाढ़ी-मूछों को सँवारते हुए जवाब दिया, ओ सवरणे, तुझे क्या समझ है वहाँ की। दुख-सुख उन्हें क्या होना है, तलाक लेकर जितनी बार चाहें ब्याह कराएँ। यह क्या कम है कि गाँव से निकल कर विलायत में ठौर मिल गई…मैं तो पूरी तरह पुण्य का काम कर रहा हूँ…नहीं तो गाँव में ही उमर गल जानी थी उनकी! फिर गले को साफ करते हुए कहने लगा, भई देख, इतनी दूर से किराया-भाड़ा खर्च कर आता हूँ…नहीं तो वहाँ क्या लड़कियों की कमी है…बहुत मिल जाती हैं…इसलिए मैं तो ले जाकर पुण्य का काम ही कर रहा हूँ।

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Sunday 5 July 2009

यादगार



अमृत जोशी
कुछ लोग दान देकर रसीद ले रहे थे, कुछ गोलक में रुपए-पैसे डाल रहे थे। लोग आ-जा रहे थे। ईंटों, बजरी, सीमेंट का ढ़ेर लगा था और निर्माण कार्य ज़ोर-शोर से चल रहा था।
यह वही जगह थी जहाँ पिछले दिनों दो अनजाने व्यक्तियों द्वारा अंधाधुंध फायरिंग करने से दस व्यक्ति मारे गए थे। मरने वालों में से एक ने बड़ी बहादुरी से मुकाबला करते हुए फायरिंग करने वालों में से एक को काबू कर लिया था। इसी कारण बहुत से बेकसूर लोग भागकर जान बचाने में सफल हो गए थे।
उस शहीद की याद में ‘यादगार’ बनते देख मन खुश हो रहा था। इस अच्छे काम के लिए मुझे भी योगदान देना चाहिए, सोचकर मैं आगे बढ़ा।
“फायरिंग में मारे गए शहीद की यादगार ही बनाई जा रही है न?” मैंने दान देकर आ रहे एक व्यक्ति से पूछ कर तसल्ली कर लेनी चाही।
“वो जी, आपको याद होगा, फायरिंग में एक गाय भी मारी गई थी। उस गौ माता की याद में मंदिर बना रहे हैं।”
उत्तर सुन कर मेरे पाँव वहीं ठहर गए।
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Tuesday 30 June 2009

वापसी



श्याम सुन्दर अग्रवाल

अपने काम से थोड़ा समय निकाल कर, घर पर ज़रूर होकर आना। मम्मी का हालचाल पूछना और अगर रात रुकना ही पड़े तो घर पर ही ठहरना।पत्नी ने सफर के लिए तैयार होते पति से कहा।

कोशिश करुंगा,कहते हुए वह मन ही मन हँस रहा था कि पगली तेरे मायके तेरी छोटी बहन सुमन से मिलने ही तो जा रहा हूँ। सरकारी काम का तो बहाना है, दफ्तर से तो छुट्टी लेकर आया हूँ।

ड्रैसिंग-टेबल के आदमकद शीशे के सामने खड़े हो उसने एक बार फिर से स्वयं को निहारा। फिर मन ही मन कहा, ‘सुमन, उम्र में तो मैं ज़रूर तुमसे सत्रह वर्ष बड़ा हूँ, पर देखने में तुम्हारा हमउम्र ही लगता हूँ।’

अपने सिर पर चमक आए एक सफेद बाल को उसने बड़ी कोशिश के बाद उखाड़ फेंका तथा बालों को फिर से संवारा। फिर चेहरे को रुमाल से पोंछता हुआ वह पत्नी के सामने जा खड़ा हुआ, कमला, देखने में मैं सैंतीस का तो नहीं लगता।

इस सूट में तो तुम खूब जँच रहे हो। सैंतीस के तो क्या, मुझे तो पच्चीस के भी नहीं दीखते।पत्नी ने प्यार भरी नज़र से देखते हुए कहा तो वह पूरी तरह खिल उठा।

रेलवे स्टेशन पर पहुँच कर उसने बुकस्टाल से एक पत्रिका खरीदी और गाड़ी में जा बैठा। भैया, जरा उधर होना।लगभग पचास वर्षीय एक औरत ने उससे कहा तो उसका मुख कसैला हो गया।

गाड़ी चली तो उसने पत्रिका खोल कर पढ़ना चाहा, लेकिन मन नहीं लगा। उसका ध्यान बारबार सामने बैठी सुंदर युवती की ओर चला जाता। युवती को देख उसकी आँखों के सामने सुमन का सुंदर हँसमुख चेहरा घूम गया। बीस वर्षीय गुलदाउदी के फूल-सी गदराई सुमन। सुमन को लुभाने के लिए ही तो उसने ससुराल के नज़दीक ट्रांसफर करवाया। और सरकारी काम के बहाने वहाँ महीने में एक चक्कर तो लगा ही आता है।

अब तो उसने नए फैशन के कपड़े सिलवाए हैं, बालों को सैट करवाया है। सिर में से सभी सफेद बाल उखाड़ फेंके हैं। अब तो वह पूरी तरह नवयुवक दीखता है। अब की बार वह सुमन को ज़रूर पटा लेगा–इस विश्वास के साथ ही वह न जाने किन ख्यालों में खो गया।

अंकल, जरा मैगजीन देना,सामने बैठी युवती ने उसकी तंद्रा को भंग किया।

उसके दोनों हाथ एकदम सीट पर कसे गए, मानो अचानक लगे झटके से नीचे गिर रहा हो। युवती को पत्रिका थमाते हुए उसकी नज़रें झुकी हुईं थीं। पता नहीं अचानक उसे क्या हुआ, अगले ही स्टेशन पर उतर कर वह घर के लिए वापसी गाड़ी में सवार हो गया।

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Thursday 25 June 2009

फासला



धर्मपाल साहिल
किसी कैदी के जेल से छूटने की तरह, वह भी विभाग द्वारा लगाए गए एक माह के रिफ्रेशर कोर्स से फ़ारिग होकर, अपने परिवार के पास उड़ जाना चाहता था। घिसे-पिटे से बोर लेक्चर। बेस्वाद खाना। अनजान साथी। बेगाना शहर। फुर्सत के क्षणों में उसे अपने सात वर्षीय बेटे राहुल की छोटी-छोटी बातें और मन लुभावनी शरारतें बहुत याद आतीं। उसका मन करता कि वह रिफ्रेशर कोर्स बीच में ही छोड़कर भाग जाए अथवा छुट्टी लेकर घर का चक्कर लगा आए। पर आकाश छू रहे किराये का ध्यान आते ही उसकी इच्छा मर जाती। वह सोचता किराये पर खर्च होने वाले पैसों से ही वह राहुल के लिए एक सुंदर-सा खिलौना ले जाकर उसे खुश कर देगा।
कई घंटों का सफर तय करके वह अपने घर पहुँचा। ‘सरप्राइज’ देने के विचार से वह दबे पाँव घर में दाखिल हुआ। टी.वी. के सामने बैठा राहुल फिल्म में खोया हुआ था। उसने दोनों बाँहें फैलाते हुए मोह भरी आवाज में कहा, “राहुल, देखो कौन आया है?”
राहुल ने उसकी आवाज सुन कर भी उसे अनदेखा कर दिया। उसने बैग से खिलौना निकाल कर दिखाते हुए फिर कहा, “राहुल, देख मैं तेरे लिए क्या लाया हूँ।”
राहुल ने टी.वी. स्क्रीन पर हो रही ‘ढिशूँ…ढिशूँ’ पर ही आँखें गड़ाए, एक हाथ से ट्रैफिक-पुलिस की तरह रुकने का इशारा कर कहा, “एक मिनट रुको पापा…यह सीन खत्म हो जाने दो।”
राहुल को गोद में उठा प्यार करने के लिए आतुर उसके बाजू कटी हुई शाखाओं की तरह नीचे की ओर लटक गए और खिलौना हाथ से छूट कर फर्श पर गिर गया।
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Friday 19 June 2009

भूखी शेरनी


नरेन्द्र बरगाड़ी
“उम्र की कुछ बड़ी है, परंतु शरीर मक्खन-सा है!”
“संगमरमर की मूर्ति-सी दिखती है”
“मगर है भूखी शेरनी। आदमी को नींबू की तरह निचोड़ डालती है।”
“जवान लड़के ढूंढती है।”
सामने मकान में रहने वाली औरत के विषय में वह लोगों से रोज ही सुनता था। वह, यानी एक कच्ची उम्र का लड़का, जवानी की दहलीज़ पर कदम रखता हुआ। उसका मन करता कि वह भी उसके पास जाए।
पिता से किताब खरीदने के बहाने बीस रुपए का नोट लेकर उसके कदम उस मकान की ओर बढ गए। मकान के भीतर पहुँच कर जब उसने उस औरत का दमकता हुआ चेहरा देखा तो उसकी आँखें झुक गईं।
“कैसे आया?” औरत ने पूछा तो झिझकते हुए उसने बीस रुपए का नोट आगे कर दिया।
“इधर मुझसे नज़रें मिला कर बात कर। घर से चुराकर लाया है या पुस्तक के लिए?”
सख्त आवाज में औरत का सवाल सुन, उसके होश उड गए। वह नज़रें झुकाए, पत्थर का बुत बनकर खड़ा रहा।
वह आगे बढ़ी और नोट उसकी जेब में डालते हुए उसे अपने सीने से लगा लिया। कुछ देर वह वैसे ही खड़ी रही, फिर भारी आवाज में बोली, “बेटा, इन पैसों से किताब ही खरीदना और इस तरह पैसे लेकर यहां फिर कभी नहीं आना…।”
लड़के को लगा जैसे कोसे पानी की दो बूँदें उसके सिर से होती हुईं उसके कानों तक आ गई हों।
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Tuesday 16 June 2009

पंजाबी पत्रिका मिन्नी से जान-पहचान


पंजाबी लघुकथा की विकास-यात्रा में पत्रिका ‘मिन्नी’ का विशेष योगदान रहा है।
• त्रैमासिक पत्रिका ‘मिन्नी’ का प्रवेशांक अक्तूबर 1988 में प्रकाशित हुआ था।
• लघुकथा विधा को समर्पित इस पत्रिका के 83 अंक पाठकों तक पहुँच चुके हैं।
• पत्रिका की और से प्रत्येक वर्ष ‘अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन’ का आयोजन किया जाता है।

Monday 15 June 2009

रिश्ते का नामकरण




दलीप सिंह वासन
उजाड़ से रेलवे स्टेशन पर अकेली बैठी लड़की को मैंने पूछा तो उसने बताया कि वह अध्यापिका बन कर आई है। रात को स्टेशन पर ही रहेगी। प्रात: वहीं से ड्यूटी पर जा उपस्थित होगी। मैं गाँव में अध्यापक लगा हुआ था। पहले घट चुकी एक–दो घटनाओं के बारे में मैंने उसे जानकारी दी।
“आपका रात में यहाँ ठहरना ठीक नहीं है। आप मेरे साथ चलें, मैं किसी के घर में आपके ठहरने का प्रबंध कर देता हूँ।”
जब हम गाँव में से गुजर रहे थे तो मैंने इशारा कर बताया, “मैं इस चौबारे में रहता हूँ।”
अटैची ज़मीन पर रख वह बोली, “थोड़ी देर आपके कमरे में ही ठहर जाते हैं। मैं हाथ–मुँह धो कर कपड़े बदल लूँगी।”
बिना किसी वार्तालाप के हम दोनों कमरे में आ गए।
“आपके साथ और कौन रहता है?”
“मैं अकेला ही रहता हूँ।”
“बिस्तर तो दो लगे हुए है?”
“कभी–कभी मेरी माँ आ जाती है।”
गुसलखाने में जाकर उसने मुँह–हाथ धोए। वस्त्र बदले। इस दौरान मैं दो कप चाय बना लाया।
“आपने रसोई भी रखी हुई है?”
“यहाँ कौन–सा होटल है!”
“फिर तो खाना भी यहीं खाऊँगी।”
बातों –बातों में रात बहुत गुजर गई थी और वह माँ वाले बिस्तर पर लेट भी गई थी।
मैं सोने का बहुत प्रयास कर रहा था, लेकिन नींद नहीं आ रही थी। मैं कई बार उठ कर उसकी चारपाई तक गया था। उस पर हैरान था। मुझ में मर्द जाग रहा था, परन्तु उस में बसी औरत गहरी नींद सोई थी।
मैं सीढि़याँ चढ़ छत पर जाकर टहलने लग गया। कुछ देर बाद वह भी छत पर आ गई और चुपचाप टहलने लग गई।
“जाओ सो जाओ, सुबह आपने ड्यूटी पर हाजि़र होना है।” मैंने कहा।
“आप सोए नहीं?”
“मैं बहुत देर सोया रहा हूँ।”
“झूठ।”
“…”
वह बिल्कुल मेरे सामने आ खड़ी हो गई, “अगर मैं आपकी छोटी बहन होती तो आपने उनींदे नहीं रहना था।”
“नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।” और मैने उसके सिर पर हाथ फेर दिया। -0-

Friday 12 June 2009

मां



जसबीर ढंड
आंखों से लगभग ज्योतिहीन बूढ़ी मां अपनी टेढ़ी–सी अनघड़त लाठी से राह टटोलती हर किसी से पूछती फिरती है, “ अरे बेटा, यहां कहीं हमारा बंसा खड़ा है, ठेला लिए ?”
शहर की सबसे अधिक भीड़भाड़ वाली सब्जी मंडी, जहां फाटक बंद होने से ट्रैफ़िक जाम हो जाता है और अच्छी–भली नज़र वाले को भी राह बनाना दूभर हो जाता है ।
“ कौन सा बंसा माई ? यहां तो नित्य नये से नया आता है… देख कैसे हनुमान की पूंछ जैसी लंबी–लंबी लाइनें लगी हुई हैं, ठेलों की…।”
“ अच्छा बेटे ! मेरा बंसा तो केलों का ठेला लगाता है…।”
“अच्छा–अच्छा, है, है…।”
ठेलेवाला पांच–सात ठेले छोड़ कर खड़े बंसे को हाथ के इशारे से ऊंची आवाज़ में बोल कर बुलाता है ।
बंसा अपना ठेला छोड़ कर तेजी से आता है ।
“ अरे संभाल माई को…।”
“क्या बात है ? यहां क्या लेने आई है ?” बंसा जैसे विकट–सी स्थिति में मां को देखकर भड़क उठता है। वह जैसे मां को मां कहने में भी शरमा रहा है ।
“ अरे बेटे, दवाई ले दे ।” बूढ़ी मां मिन्नत करती है ।
“ कैसी दवाई ? क्या हुआ तुझे ?” बेटे को क्रोध चढ़ गया ।
“ बेटे, चार दिन हो गए ताप चढ़ते को, तुम्हे तो फुरसत ही नहीं मिलती काम–धंधों से ।”
“ चार दिन हो गए…तू हंसे को कह देती । यहां जो भागी आई है ।”
“ हंसे को कहा था, उसने ही तेरे पास भेजा है…।”
“ मेरे पास भेजा है… क्यों ? मैने ठेका ले रखा है ?”
“ ओ बंसे, गाय तेरे केले खा गई…।” साथ के ठेलेवाला ऊंची आवाज़ में बंसे को बुलाता है।
हरल–हरल करती फिरती हैं आवारा भूखी गाएं, दूध देने से हट जाने पर डंडे मार–मार लोग घर से भगा देते हैं । जहां उनका दांव लगता है, मुंह मार लेती हैं।
बंसा मां को वहीं खड़ी छोड़ अपने ठेले की ओर भाग लेता है । “ बेटे बंसे ! रात तो बहुत कंपकंपी छिड़ी…ले देगा दवाई ? बेटे, मुझसे तो अब खड़ा भी नहीं हुआ जाता…मन घबरा सा रहा है…!”
पर बंसा वहां होता तो जवाब देता।
“ चली जा माई ! कौन लेकर देगा तुझे यहां कैपसूल ? कोई गऊ, सांड़ फेट मार देगा, या कोई ट्रक कुचल जाएगा…दुनिया से भी जाएगी।”
दो जवान जहान शादीशुदा बेटों की मां भरे संसार में अकेली खड़ी है !
“ अच्छा बच्चे !” एक और आह बूढ़ी मां की छाती के भीतर से निकल कर ब्रह्मांड तक फैल जाती है ।•

Sunday 7 June 2009

पंजाबी लघुकथा से जान-पहचान


पंजाबी लघुकथा से जान-पहचान
•पंजाबी में लघुकथा को ‘मिन्नी कहानी’ के नाम से जाना जाता है।
•आधुनिक पंजाबी लघुकथा का जन्म बीसवीं सदी के सातवें दशक में हुआ।
•पंजाबी में पहला लघुकथा संकलन ‘तरकश’ वर्ष 1973 में प्रकाशित हुआ।


ममता



जंग बहादुर सिंह घुम्मन


वृद आश्रम में करीब पैंसठ वर्ष की एक औरत को उसका बेटा दाखिल करवा गया था । रब्ब जैसा मैनेजर उसे सहारा देता हुआ एक कमरे तक ले गया ।
“यह चारपाई-बिस्तर आपके लिए है, मां जी । आपको यहां घर जैसी सुविधा मिलेगी । फिर भी ’गर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बता देना ।”
बेबस मां ने आसपास व दूसरे बिस्तरों पर अपने जैसी ही कुछ अन्य अंतिम सांस लेती औरतों को कमज़ोर निगहों से देखा । धीरे-धीरे बड़े ध्यान से चारपाई पर बैठते ही आह भरते दिल की बात कही, “बेटा, ’गर कर सकता है तो बाज़ार से मुझे एक खिलौना गुड़िया ला दे, छोटे बच्चे जितनी ।”
“ वह क्यूँ माँ जी, यह उम्र आपकी खिलौनों वाली है ?”
“ बेटे, घर पर पोती है मेरी । उसके बिना मैं रह नहीं सकती । बहुत लगाव है मुझे उससे । बेटे ने तो घर से निकल दिया । पोती की जगह खिलौने को गोदी में उठा लिया करूँगी, साथ लिटा लूंगी, दिल लगा रहेगा बेटा मेरा ।”
और यह कहते मां सुबकने लगी ।
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Friday 5 June 2009

पहाड़ों पर चढ़ने वाली



तरसेम गुज़राल
दिनेश साहब का केबिन कुछ इस तरह था कि कांच की दीवारें चारों तरफ ज़्यादा से ज़्यादा कर्मचारियों पर नज़र रख सकें ।
पिछले कुछ दिनों से पार्वती माई पर उनकी खास नज़र थी । पार्वती पिछले दस सालों से वहां काम कर रही थी । पहले चरखे पर ऊन अटेरती थी, बाद में उसे रफू के काम पर लगा दिया गया। पर उसकी सेहत लगातार बिगड़ती जा रही थी । मशहूर था कि साहब के दादा ने अपने बीमार घोड़े को गोली मरवा दी थी । पर इस दादा का पोता होने पर भी वह इतना निर्मोही व पत्थर दिल नहीं था ।
पार्वती को लगातार बीमार-सी व सुस्त देखकर उसने उसकी तनख़्वाह कम कर दी, पर उसने नौकरी पर आना नहीं छोड़ा । दो-तीन महीने बाद उन्होंने फिर उसकी तनख़्वाह कम कर दी । पार्वती माई ने कोई शिकायत न की । बस, गुज़रते हुए पहले जो हाथ जोड़कर नमस्कार करती थी वह बंद कर दी ।
पिछले कई दिनों से दिनेश साहब ने नोट किया कि पार्वती माई का बेटा रोज सुबह रिक्शा से उसे फाटक तक छोड़ जाता है और शाम को रिक्शा पर ले जाता है ।
अगले दिन उन्होंने टोका, “ तुम्हें पता है, तुम्हारी मां बीमार है ?”
“ हां सा'ब, उन्हें टी.बी. है ।”
“ तुम इलाज क्यों नहीं करवाते ? यह उम्र उनके काम करने की है ?”
“ मैं रोक भी कैसे सकता हूं सा'ब, मेरी तीन जवान बेटियां हैं । पेट का नरक भरने से ही फ़ुर्सत नहीं । हाथ पीले करने को कहां से लाऊं । माई ने तो मेरा घर कोठा बनने से रोका हुआ है ।”
दिनेश साहब की नज़र पार्वती माई पर पड़ी । गिरते कदमों से भी वह भार उठाती, पहाड़ पर चढ़ने वाली औरत से कम नहीं लग रही थी ।
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Wednesday 3 June 2009

तरकीब


हरभजन खेमकरनी
रसोईघर में काम कर रही अमनजोत अपने दो वर्षीय बेटे मिंटू की ओर से बड़ी चिंतित थी–लड़का सारे दिन में मुश्किल से एक गिलासी दूध ही पीता है। रोटी की तरफ तो देखता भी नहीं। फल-फ्रूट काट-काट कर फेंक देता है। डाक्टर कहते हैं कि पेट की कोई तकलीफ नहीं। कहीं महिंदरो की बात ठीक न हो कि किसी शरीकन ने तावीज ही न खिला दिया हो कि लड़का घुट-घुटकर मर जाए।
वह अभी इसी उधेड़-बुन थी कि “ अरी बहू, लस्सी है थोड़ी-सी?…दिल घबरा-सा रहा है। सोचा, लस्सी पीकर देख लूँ, शायद कलेजे में ठंड पड़ जाए।” बुज़ुर्ग करतार कौर की आवाज उसके कानों में पड़ी।
“ आ जाओ माँ जी, है लस्सी, नमक वाली लाऊं कि मीठेवाली? और माथा टेकती हूँ माँ जी।”
“ जीती रह बहू, तेरा साँई जीए! रब जोड़ी बनाए लड़कों की! लस्सी में नमक डाल दे और बर्फ है तो एक डली वह भी डाल देना।”
फ्रिज में से बर्फ निकाल लस्सी में डालते हुए अमनजोत को ध्यान आया कि बूढ़ी औरतों के पास बहुत से टोटके होते हैं। “ लो माँ जी, लस्सी,” लस्सी का गिलास करतार कौर की ओर बढ़ाते हुए उसने कहा,“ और एक बात पूछनी थी, आपका पोता पता नहीं क्यों रोटी नहीं खाता?”
“ बहू, गुस्सा न करे तो एक बात बताऊँ। परसों हवेली में तेरे ससुर के पास बैठी थी कि छिंदी रोटी लेकर आई। मिंटू भी साथ था। तेरे ससुर ने मिंटू को घुटने पर बैठाया तो दोनों एक दूसरे के मुँह में रोटी के कौर डालते रहे। मेरे ख्याल में तो लड़का आधी रोटी खा गया होगा। तुम कह रही हो कि लड़का रोटी नहीं खाता!”
“ लेकिन मैने तो हर हीला कर के देख लिया, मुझसे तो रोटी खाता नहीं।”
“ बच्चों को रीस करने की आदत होती है, बहू। दादा-दादी के साथ तुम खाने-पीने नहीं देती, कहती हो बीमारी लग जाएगी।” बुढ़िया ने मन की भड़ास निकाली।
“ आप ही बताओ, अब मैं क्या करूं?”
“ आजकल की पढ़ी-लिखी बहुओं ने बच्चों को मार-झिड़क कर खिलाना सीखा है। बच्चे सहम जाते हैं। बच्चे को प्यार से पास बिठाकर रोटी खिला। दो-चार दिन में आदत पड़ जाएगी। बहू, ये टी.वी. देखने की जल्दी ही तुम्हें बच्चों से दूर कर रही है।” लाठी का सहारा लेकर उठते हुए करतार कौर ने समझाया।
शर्मिंदा-सी हुई अमनजोत रसोईघर की ओर चल दी।
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Sunday 31 May 2009

माँ की ज़रूरत




डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति
“ कर लो पता अपने काम का, साथ ही उन्हें चेयरमैन बनने की बधाई भी दे आओ, इस बहाने।”
पत्नी ने कहा तो भारती चला गया, वरना वह तो कह देता था,‘ देख,‘गर काम होना होगा तो सरदूल सिंह खुद ही सूचित कर देगा। हर चार-पाँच दिन के बाद मुलाकात हो ही जाती है।’
तबादलों की राजनीति वह समझता था। कैसे मंत्री ने विभाग संभालते ही सबसे पहले तबादलों का ही काम किया। बदली के आदेश हाथ में पहुँचते ही भारती ने अपनी हाज़िरी-रिपोर्ट दी और योजना बनाने लगा कि क्या किया जाए– वहाँ रहे, बच्चों को साथ ले जाए या फिर रोजाना आए-जाए। बच्चों की पढ़ाई के मद्देनज़र आख़िरी निर्णय यही हुआ कि अभी यहीं रहते हैं और ‘दंपति-केस’ के आधार पर एक अर्जी डाल देते हैं। और तो भारती के वश में कुछ था भी नहीं। फिर पत्नी के कहने पर एक अर्जी राजनीतिक साख वाले पड़ोसी सरदूल सिंह को दे आया था।
सरदूल सिंह घर पर ही मिल गया। वह भारती को गर्मजोशी से मिला। भारती को भी अच्छा लगा। आराम से बैठ, चाय मँगवा कर सरदूल बोला, “ छोटे भाई! वह अर्जी मैने तो उस वक्त पढ़ी नहीं, वह अर्जी तूने अपनी तरफ से क्यों लिखी? माता जी की तरफ से लिखनी थी। ऐसा कर, एक नई अर्जी लिख, माता जी की तरफ से। लिख कि मैं एक बूढ़ी औरत हूँ, अकसर बीमार रहती हूँ। मेरी बहू भी नौकरी करती है…बच्चे छोटे हैं, देर-सवेर दवाई की ज़रूरत पड़ती है…मेरे बेटे के पास रहने से मैं……। कुछ इस तरह से बात बना। बाकी तू समझदार है। मैने परसों फिर जाना है, मंत्री से भी मुलाकात होगी।” उसने आत्मीयता दिखाते हुए कहा।
भारती ने सिर हिलाया, हाथ मिलाया और घर की तरफ चल दिया। माँ की तरफ से अर्जी लिखी जाए। माँ को मेरी ज़रूरत है…माँ बीमार रहती है…कमाल! बताओ अच्छी-भली माँ को यूँ ही बीमार कर दूँ। सुबह उठ कर बच्चों को स्कूल का नाश्ता बना कर देती है। हम दोनों तो ड्यूटी पर जाने की भाग-दौड़ में होते हैं। दोपहर को आते हैं तो खाना तैयार मिलता है। मैं तो कई बार कह चुका हूँ कि माँ बर्तन साफ करने के लिए नौकरानी रख लेते हैं, पर माँ नहीं रखने देती। कहती है,‘ मैं सारा दिन बेकार क्या करती हूँ।’…कहता लिख दे, बेटे का घर में रहना ज़रूरी है। मेरी बीमारी के कारण मुझे इसकी ज़रूरत है। कोई पूछे इससे कि माँ की हमें ज़रूरत है कि…। नहीं-नहीं, माँ की तरफ से नहीं लिखी जा सकती अर्जी।
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गिद्ध


श्याम सुन्दर अग्रवाल
कोसी धूप में बैठे चारों मित्र शनिवार की छुट्टी का आनंद ले रहे थे। सभी अपने-अपने दफ्तर में काम करने वाली लड़कियों के किस्से छेड़े हुए थे। पास में रखा ट्रांजिस्टर फिल्मी गीत सुना रहा था। ट्रांजिस्टर ने अचानक गीत बंद कर वयोवृद्ध नेता, महान स्वतंत्रता सेनानी तथा समाजसेवी ‘आज़ाद जी’ के निधन का शोक-समाचार सुनाया तो सभी को गहरा आघात लगा।
“आज़ाद जी ने देश व समाज को इतना कुछ दिया, थोड़ा हमें भी दे जाते!” पहले ने अपना दुख व्यक्त किया।
“इसे मरना तो था ही, दो दिन और ठहर जाता। भला शनिवार भी कोई मरने का दिन है!” दूसरे की आवाज में झुंझलाहट थी।
“बुढ्ढा दो दिन न सही, एक दिन तो और सांस खींच ही सकता था। रविवार को मरता तो सोमवार की तो सरकार छुट्टी करती ही।” यह तीसरा था।
“आज़ाद जिस दिन बीमार हो अस्पताल पहुँचा, मैं तो उसी दिन से इसकी मौत पर दो छुट्टियों की आस लगाए बैठा था। सोचा था, एक-आध छुट्टी और साथ मिला कर कहीं घूम-फिर आयेंगे। पर इसने सारी उम्मीदों पे पानी फेर दिया!” चौथे ने कहा तो वे सभी गहरे गम में डूब गए।
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